३०६ स्वरूप है-भगवान जैसा, वह कैसे प्राप्त हो?
और गुरु साधना कर रहे हैं। स्वरूपमें क्षण-क्षणमें लीन हो रहे हैं। ऐसे गुरु किसको कहते हैं? आत्माकी साधना करे और स्वरूपमें लीन होते हो, वह गुरु है।
और शास्त्र, जिसमें आत्माकी बात आती हो, वह शास्त्र है। वह सब यथार्थ समझकर, आत्माकी पहचान कैसे हो? ध्येय आत्माका होना चाहिये। अनन्त काल-से भगवान बहुत बार मिले, गुरु मिले, शास्त्र मिले, लेकिन स्वयंको पहचाना नहीं। बाहरमें रुक गया। स्वयंकी पहचान कैसे हो? और जबतक पहचान न हो, अन्दर लीनता न हो तब शुभभावोंमें देव-गुरु-शास्त्र शुभ भावनामें होते हैं। ध्येय एक आत्माका रखना। करना वह है।
बाहर कहीं सर्वस्व नहीं है। आत्मामें सर्वस्व सुख और सर्वस्व आनन्द आत्मामें है। उसे प्रगट करना वह करना है। अनन्त शक्तियाँ आत्मामें हैं। वह कोई बाहर ज्यादा क्रिया करे, या ज्यादा त्याग करे, तो अंतरमें प्रगट हो, ऐसा नहीं है। परन्तु अंतरमें स्वयंको पहचाने और अंतर-से विरक्ति हो, अंतर-से विभावका त्याग हो तो सच्चा त्याग है। बाहरका हो वह तो शुभभावना है मात्र। अंतर-से वास्तवमें छूट जाय, अंतरमें- से रागसे भिन्न होकर स्वयंको पहचाने वह वास्तवमें अंतरमें त्याग है। वह अंतरमें करना है।
सच्चा त्याग अंतरमें है, सच्चा संवर अंतरमें होता है, सच्ची निर्जरा अंतरमें होती है, सब अंतरमें होता है। बाकी बाहरका जो मानते हैं कि अपने तप करें तो निर्जरा होगी, वह सब बाहरका है। ऐसा तप बहुत बार किया, ऐसी निर्जरा की, लेकिन वास्तवमें निर्जरा नहीं होती है। नये-नये कर्म बान्धते हैं। सच्चा तो अंतर-से छूटे तो वास्तवमें बन्ध-से छूटे और वास्तवमें अंतर-से भिन्न होकर सच्चा मोक्ष अंतरमें होता है। करना वह है।
जैसा सिद्ध भगवानका स्वरूप है, ऐसा अपना स्वरूप है। और वह गृहस्थाश्रममें उसकी स्वानुभूति कर सकता है। गृहस्थाश्रममें आंशिक और मुनिदशामें बारंबार स्वानुभूति कर सकता है। जो उसका स्वभाव है उसमें-से प्रगट होता है। छोटीपीपर हो उसे घिसते-घिसते चरपराई (प्रगट होती है, वह) उसमें भरा है वह प्रगट होता है। वैसे आत्मामें ज्ञान है, बारंबार उस पर दृष्टि करे, उसमें रमणता करे तो प्रगट होता है। बाहर-से नहीं आता। बाहरमें तो मात्र शुभभावनारूप कर सकता है।
... स्वभाव-से भरा हुआ, वैसे आत्मा आनन्द-से और ज्ञान-से भरा है। ऐसे अनन्त गुण-से भरा है। परन्तु अंतरमें दृष्टि प्रगट हो, तो काम आये ऐसा है। भेदज्ञान करके आत्माको पहचानना। आत्माके उत्पाद-व्यय-ध्रुव और पुदगलके उत्पाद-व्यय-ध्रुव क्या? अपने द्रव्य-गुण-पर्याय, दूसरोंके द्रव्य-गुण-पर्याय, दोनोंको भिन्न करे, वह करना है।