Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1540 of 1906

 

ट्रेक-

२३५

३०७

मुमुक्षुः- जितना आदर देव-गुरु-शास्त्रके प्रति आता है, इस भूमिमें, दूसरी जगह आता नहीं।

समाधानः- गुरुदेव यहाँ कितने साल रहे हैं। ४५ साल गुरुदेव यहीं रहे हैं। और ये सब कुदरती उनके प्रताप-से ऐसा हो गया है कि...

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- वास्तविक उपाय वही है-स्वानुभूति। गुरुदेवने वही (उपदेश दिया है कि) स्वानुभूति प्रगट करो। बाहरमें जीव अनन्त कालमें हर जगह जहाँ-तहाँ रुक जाता है। परन्तु अंतरमें करनेका एक ही है-स्वानुभूति कैसे हो? भेदज्ञान कैसे हो? आत्मा कैसे ग्रहण हो? वह है। बाहर रुक जाता है।

अनन्त कालमें (क्रियाएँ) की, बाह्य त्याग किया, मुनिपना लिया, परन्तु अंतर एक आत्माको पहचाना नहीं। सब बाहरका जाना, लेकिन आत्माको जाने बिना। एक आत्माको जाने उसने सब जाना है। ऐसा गुरुदेव कहते थे, एक आत्मामें दृष्टि दे तो उसमें सब आ जाता है। अनन्त काल ऐसे ही व्यतीत किया। बाहर थोडी क्रिया कर ली तो धर्म मान लिया, अथवा कुछ त्याग कर दिया तो मैंने बहुत किया, परन्तु अंतरमें त्याग क्या है और कैसे है, उसका विचार नहीं किया है।

स्वानुभूतिका मार्ग गुरुदेवने (बताया)। स्वानुभूति अंतरमें होती है। नहीं तो समयसार पढकर, इसमें तो आत्माके आनन्दकी बात है, आनन्दकी बात है, ऐसा करके छोड देते थे। दिगंबरोंमें सब छोड देते थे। गुरुदेवने उसमें-से रहस्य खोले कि इसमें तो कोई अपूर्व बात भरी है। समयसारमें।

(गुरुदेवने संप्रदायमेें) दीक्षा लेकर छोड दिया कि मार्ग तो कोई अलग है। अंतरमें है। सबको प्रकाश किया। यहाँ तो ठीक, पूरे हिन्दुस्तानमें सबको जागृत कर दिया कि अंतरमें है सब। स्थानकवासीमें या दिगंबरमें, सब बाह्य क्रियामें धर्म मानते थे। वह कहे, सामायिक, प्रतिक्रमण कर ले तो धर्म (हो गया), थोडी भक्ति-पूजा कर ले तो धर्म (हो गया), यहाँ दिगंबरमें थोडी शुद्ध-अशुद्धि कर ले तो धर्म (हो गया), ऐसे धर्म (मानते थे)। बाहर-से थोडा कर ले, फिर पूरा दिन कुछ भी करते हो, थोडा कर ले तो धर्म (हो गया)। उसमें शुभभाव रखे तो पुण्यबन्ध हो। बाह्य प्रसिद्धिके हेतु- से करे तो पुण्य भी नहीं बन्धता। शुभभावना रखे तो पुण्यबन्ध होता है।

गुरुदेव कहते हैं, पुण्यभाव भी तेरा स्वभाव नहीं है। उससे देवलोक होता है, भवका अभाव नहीं होता है। तू उससे भिन्न है। शुभभाव भी तेरा स्वरूप नहीं है। उससे तू भिन्न है। शुभभाव सब बीचमें आते हैं। देव-गुरु-शास्त्र, दान, दया, तप सब आये, लेकिन वह तेरा स्वभाव (नहीं है)। शुभभावना तेरा स्वरूप नहीं है।