Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

३१६ कालके अभ्यासके (सामने)। अनन्त कालका अभ्यास किया, उसके सामने अनन्त काल अभ्यास करनेमें नहीं जाता है। भले अभ्यास करे धीरे-धीरे तो थोडा समय लगे, परन्तु उग्र करे तो छः महिने लगता है। परन्तु अंतिम क्षणोंमें उसे एक क्षण तो जोर करना ही पडता है, अनादिका अभ्यास तोडनेको। जितना काल उसका अभ्यास करनेमें व्यतीत किया, उतना काल नहीं लगता है। परन्तु क्षण भर तो जोर करना ही पडता है।

... करके थक जाता है, खेद हो जाता है। भय और अरोचक भावको वह पकड नहीं सकता है। गहराईमें जाय तो अन्दर रुचि भले आत्माकी हो, परन्तु एकत्वबुद्धि तोडते-तोडते उसे तकलीफ होती है। एकत्वकी परिणति हो गयी है। रुचि अपनी ओर है, परन्तु एकत्वकी परिणति हो गयी है, उसे तोडनेमें तकलीफ होती है।

.... गुण-पर्याय कहो, उत्पाद-व्यय-ध्रुव कहो। ये उत्पाद-व्यय-ध्रुव मेरे, .. उसे बराबर पहचानकर भेदज्ञान करे। प्रज्ञाछैनी, उसकी सन्धि देखकर उसे बराबर तोडना। कोई जगह सूक्ष्म सन्धि भी नहीं रहती। एक समान भाग हो जाता है। उसकी सन्धि देखकर विभाग करे तो सूक्ष्म सन्धि नहीं रहती। तो ही विभाव हुआ ऐसा कहनेमें आये। सूक्ष्म सन्धि रहे तो उतना चीपका रहे, तो दो भाग भिन्न नहीं हो जाते। पत्थर हो, उसमें सूक्ष्म सन्धि हो तो भी पत्थर एक जगह चीपका रहता है। तो भी चीपका रहता है। वहाँ भी सूक्ष्ममें वह चीपका नहीं।

सूक्ष्ममें गुणके भेद, पर्यायके भेद, जो रागमिश्रित भाव जहाँ-जहाँ आये, वहाँ-से भिन्न पड जाता है। ज्ञानमें सब हो। परन्तु एकत्वबुद्धि जहाँ-जहाँ हो, वहाँ-से भिन्न पड जाता है। दूसरे शुभभाव, जहाँ स्वयंको बहुत रस आये ऐसे भाव, गुणके भेद, पर्यायके भेद, उसमें रागमिश्रित जो-जो सूक्ष्म-सूक्ष्म आते हो, सबमें प्रज्ञाछैनी चारों तरफ- से पटकती है। और एक समान दो विभाव कर देती है। यह चैतन्यका भाग और यह विभावका भाग है। उतना ज्ञान करे, इतना करे तो भी कहीं-कहीं शुभभावोंमें मीठास रह जाती है।

मुमुक्षुः- ... पर्याय तो व्यय हो गयी है।

समाधानः- पर्याय दूसरी हो गयी, परन्तु द्रव्यमें योग्यता है। सर्वथा भिन्नता तो नहीं है। सबमें अपेक्षासे समझनी। प्रत्यभिज्ञानका कारण जो सामान्य स्वभाव है, प्रत्यभिज्ञानका कारण जो द्रव्य है, उसमें-से उसे स्फूरणा होती ही रहती है। संस्कार होते हैं।

मुमुक्षुः- संस्कार द्रव्यमें योग्यता रूप रहते हैं?

समाधानः- हाँ, योग्यता रूप रहते हैं।

मुमुक्षुः- पर्याय तो व्यतिरेक है।

समाधानः- पर्याय तो चली गयी है, व्यतिरेक हो जाती है। सब पर्याय भिन्न-