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मुमुक्षुः- परिणतिमें ऐसा नहीं होता।
समाधानः- परिणतिमें ऐसा नहीं होता। उसे सब विवेक तो होना चाहिये।.. दोष पर वजन चला जाय, ऐसा नहीं है। दृष्टिका जोर साथमें है। फिर न हो तो आकुलता हो कि उलझनमें आ जाय, ऐसा उसे नहीं होता। परन्तु समझता है कि मेरी क्षति है। मैं लीन होऊँ तो यह सब छूट जाय। परन्तु मुझे लीनता कैसे हो? ऐसी भावना रहती है।
मुमुक्षुः- महिमा नहीं आती, ... दोषका ख्याल है, दृष्टिका जोर तो ज्ञायक हूँ, वह है।
समाधानः- .. दृष्टिका कहे और चारित्रकी बात हो तो चारित्रका कहे। सर्व प्रकारकी बात आये। गुरुदेव, अनन्त कालसे जीव भ्रममें पडे हैं, उन्हें दृष्टिकी बात जोर-से बताये, स्व-पर एकत्व-विभक्तकी बात दुर्लभ है, जीवने सुनी नहीं है। स्वमें एकत्व और परसे विभक्त, वह बात (दुर्लभ है)। गुरुदेव तो दृष्टिकी बात करे। परन्तु प्रसंग पर सब बात गुरुदेवके प्रवचनमें सब बात आती थी। चारों ओरकी बातें आती थी। जब पर्याय-ओरकी आये तो इतने जोर-से (कहे) और दूसरे रंग जाय, ऐसी बात पर्याय-ओरकी आती थी।
मुमुक्षुः-
समाधानः- चारों तरफकी बात गुरुदेवके (प्रवचनमें) आती थी। वैराग्य तरफकी बात ऐसी आये कि दूसरे लोग डोलने लगे। मुनिकी बात, बच्चोंकी करते थे, गुरुदेव कैसी बात करते थे। गुरुदेव चारों तरफकी बात (करते थे)। हम आज ही धर्म अंगीकार करेंगे, हम आज ही मुनिपना लेंगे। गुरुदेवकी सर्व प्रकारकी बात आती थी।
समाधानः- वह आगे बढनेमें उलझ जाता हो तो एक जाननेकी बात है कि क्रमबद्ध है। मेरी क्षति है, ऐसा स्वयंको पुरुषार्थका लक्ष्य तो रहना चाहिये।
.. द्वेष अरोचक भाव। परकी रुचि तोडते-तोडते उसे पसीना निकल जाता है। ऐसे उसको रुचि होती है कि आत्माका करने जैसा है। परन्तु एकत्वबुद्धि तोडते-तोडते उसे मुश्किल हो जाता है। अनन्त कालका अभ्यास है न इसलिये। प्रयास कर-करके खेद हो जाय, थक जाता है। वहाँ जाय, प्रयास करे, अभी भी प्राप्त नहीं हो रहा है, प्रयास करते-करते थक जाय, खेद हो जाता है। ... ऐसा होता नहीं है, परन्तु उसके विश्वासमें चलायमान हो जाता है। पुरुषार्थकी क्षति है।
... कैसी कर दी है। वह स्वयं है भिन्न, परन्तु स्थूल हो गया है। स्वयंने ही एकत्व अभ्यास कर-करके (किया है)। जितना अभ्यासका जोर किया, उतना अनन्त काल उस अभ्यासमें रहा। अब उसे क्षण भर तो जोर करना ही पडे न। इस अनन्त