३१४ भावना तो आये बिना नहीं रहती। भावना तो सब आती है। उसके ज्ञानमें वह ऐसा समझता है और दृष्टिका जोर अपने द्रव्य पर है कि यह द्रव्यकी दृष्टष्टि है वह जोरदार है। लेकिन वह ज्ञानमें समझता है कि मैं लीन होऊँ तो यह छूट जाय ऐसा है। मेरी लीनताकी क्षति है। स्व तरफ देखता हूँ तो मेरी लीनताकी क्षति है। इस ओर देखूँ तो मेरे पुरुषार्थकी क्षति है। सर्व प्रकारकी भावना तो आती है। एक जातकी भावना (नहीं होती)। साधक दशामें एक प्रकारकी नहीं होती, सर्व प्रकारकी भावना आती है।
मुमुक्षुः- साधकको दृष्टिके जोर पूर्वक दोषका ज्ञान भी बराबर होता है।
समाधानः- हाँ, दोषका ज्ञान हो, गुणका ज्ञान हो, स्वका ज्ञान हो, परका ज्ञान हो। सब ज्ञान होता है। राजकाज करते चक्रवर्ती हो, अरे..! मेरी क्षति है, मैं इसमें- से कब छूटूँ? मैं कब लीन होऊँ? मुनि कब होऊँ? ऐसी सब भावना, वैराग्यकी भावना तो आती ही है। धन्य मुनिदशा! जो मुनि बनकर चले जाते हैं। मैं अभी इसमें खडा हूँ। ऐसी भावना तो आती है।
मुमुक्षुः- सविकल्प दशामें ऐसे सब विकल्प आते हैं।
समाधानः- विचार (आते हैं)।
मुमुक्षुः- ... दृष्टिका जोर तो ज्योंका त्यों है।
समाधानः- हाँ, दृष्किा जोर होने पर भी साधक दशामें ऐसे विचार आते हैं। नहीं तो वीतराग हो जाय। अकेले गुण पर हो तो गुणकी परिणति प्रगट होनी चाहिये। मात्र गुण तरफ ही रहता हो तो गुणकी परिणति गुणरूप हो जानी चाहिये। अन्दर विभाव होता है और उसे टालनेका विचार न आये, ऐसा नहीं बनता। मैं लीन होऊँ, स्व तरफ जाऊँ तो सहज ही छूटता है। सहज दशा हो तो सहज छूटता है, ऐसा उसे ख्याल है। तो भी भावना सब आती है। उस पर उसे वजन नहीं है। ऐसी वस्तु स्थिति नहीं है कि दोष तरफ दृष्टि रखनी। ऐसी वस्तु स्थिति नहीं है। निज द्रव्य पर दृष्टि है। ज्ञान स्व-ओरका होता है। परन्तु सब जानता तो (है)। दिशा अपनी ओर मुड गयी है, लीनता अपनी ओर करता है, परन्तु भावना तो सब आती है।
मुमुक्षुः- फिर यह सहज ज्ञानमें यह सब भी..
समाधानः- यह सब आता है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- सब, भावना तो सब आती है। दृष्टिके जोरमें द्रव्य तो जैसा है वैसा है। मैं पुरुषार्थका पिण्ड हूँ, ऐसा दृष्टिमें आये इसलिये पुरुषार्थ करना ही नहीं, ऐसा उसका अर्थ नहीं होता।