मुख्यतापूर्वकका क्रमबद्ध है। जिसके लक्ष्यमें पुरुषार्थ नहीं है, वह आगे नहीं बढ सकता। क्रमबद्ध भले साथमें हो, परन्तु जिसके लक्ष्यमें पुरुषार्थ नहीं है (वह आगे नहीं बढ सकता)। क्रमबद्ध पुरुषार्थके साथ जुडा है।
मुमुक्षुः- पर्याय शुद्ध हो जाती है? क्रमबद्धके साथ पुरुषार्थ आये तो पर्याय शुद्ध हो जाती है?
समाधानः- पुरुषार्थ उत्पन्न हो, इसलिये उसका क्रमबद्ध हो जाता है। पुरुषार्थ अपनी ओर-ज्ञायक ओर करे तो क्रमबद्ध जैसा है वैसा हो जाता है। उसकी दृष्टि पुरुषार्थ पर होनी चाहिये, उसका लक्ष्य पुरुषार्थ पर होना चाहिये। उसे खटक रहनी चाहिये कि मेरी मन्दता है, मैं आगे नहीं बढ पाता हूँ। यदि ऐसा उसके ख्यालमें रहे कि क्रमबद्धमें जैसा होनेवाला होगा वह होगा, मैं क्या करुँ? होनेवाला होगा, होनेवाला होगा, ऐसा करता रहे तो उसे होनेवाला होगा, ऐसा ही रहेगा। परन्तु जिसकी भावनामें खटक रहे तो ही उसका क्रमबद्ध पुरुषार्थके साथ जुडा है। ऐसा क्रमबद्ध और पुरुषार्थका सम्बन्ध है। स्वभाव, काल, पुरुषार्थ आदि सब जुडे हैं।
मुमुक्षुः- पाँचों समवायका मेल है। उसमें पुरुषार्थकी मुख्यता है।
समाधानः- उसमें पुरुषार्थकी मुख्यता (है)। साधकको, रुचिवालेको सबको पुरुषार्थ- ओर, अपनी ओर, अपनी भूल तरफ उसकी दृष्टि रहनी चाहिये कि मेरी क्षति है। क्रमबद्ध और कर्मका उदय (लेकर) जो अपनी क्षति नहीं गिनता है, उसको धीरापन और कचास रहेगी ही। जो अपनी क्षतिकी ओर जाता है, फिर भले कर नहीं सकता, परन्तु अपनी क्षतिकी ओर ही उसकी दृष्टि रहती है, वही आगे बढता है। ऐसा पुरुषार्थ और क्रमबद्धका सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- क्षति है, उसमें कोई ऐसा कहे कि इसमें तो दोष पर दृष्टि रहती है।
समाधानः- दोष पर दृष्टि,.. गुण पर दृष्टि गयी, परन्तु जो साधक दशा है, उसकी भावनामें सब आता है कि मैं परिपूर्ण चैतन्यस्वरूप ज्ञायक हूँ। परन्तु मेरी न्यूनता है। न्यूनताकी ओर उसे विचार आये बिना नहीं रहते। भावना हुए बिना नहीं रहती। कैसे ये सब विभाव छूटे, मैं स्वभावमें रहूँ। विभाव छूटे, पुरुषार्थ करुँ ऐसी भावना ही न हो, ऐसा नहीं होता। दोनों प्रकारकी भावना तो होती है। उसे दोषसे कैसे छूटे? और मैं स्वभाव तरफ दृष्टि करुँ, लीन होऊँ तो छूटेगा, ऐसा समझता है। मेरी लीनताकी क्षति है। इसलिये यह क्षति है। मेरे गुण प्रगट हो तो दोष टले। ऐसा वह बराबर समझता है। परन्तु भावना तो सब प्रकारकी आती है।
मेरी क्षति है, मेरा दोष है, मैं लीनता करुँ तो हो। ऐसी भावना तो आती है। ये राग कैसे छूटे? यह कैसे छूटे? चारित्र दशा कैसे आये? कब वीतराग होऊँ? ऐसी