१५६ है, बिना आश्रय पर्याय परिणमित हो गयी, ऐसा नहीं है। द्रव्यके आश्रयसे पर्याय परिणमति है। पर्याय एक अंश है इसलिये उसे भिन्न करके पर्याय स्वयं परिणमित हुयी, ऐसा एक अपेक्षासे कहनेमें आये। परन्तु वह द्रव्यके आश्रय बिना ऊपर-ऊपरसे परिणमित हुयी, ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- द्रव्यका आश्रय तो बराबर है कि पर्यायको द्रव्यका आश्रय तो होता है। परन्तु आश्रय द्रव्यका रखकर भी स्वतंत्ररूपसे परिणमती है, ऐसी कोई विवक्षा है?
समाधानः- स्वतंत्र परिणमे यानी द्रव्यके हाथमें डोर नहीं है और उसे ठीक पडे वैसे परिणमती है, ऐसा नहीं है। मोक्षमार्गकी डोर उसके हाथमें है। विभावकी ओर जाना हो तो वह स्वतंत्र जाये और स्वभाव (की ओर जाना है तो वहाँ जाये), ऐसे पर्याय नहीं जाती। उसके हाथमें डोर है। डोरको किस ओर ले जाना, वह उसके हाथमं है। द्रव्यदृष्टिके हाथमें उसकी डोर है।
मुमुक्षुः- अकारण पारिणामिक द्रव्य।
समाधानः- अकारण पारिणामिक द्रव्य भी अलग है। इसे अन्दर पुरुषार्थसे प्रगट पर्याय होती है। ये ऐसे क्यों परिणमा? अकारण पारिणामिक है। लेकिन जो बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ होता है, उसमें उसकी डोर उसके हाथमें है। डोर हाथमें नहीं है और ठीक पडे वैसे पर्याय परिणमती है, ऐसा नहीं है। उसकी पूरी दिशा बदल गयी है। द्रव्यदृष्टिका आलम्बन है। आलम्बनके जोरमें सब पर्याय इस ओर आती है। उसके आलम्बनके जोरमें आती है।
मुमुक्षुः- डोर उसके हाथमें है, वही उसकी स्वतंत्रता है।
समाधानः- वह उसकी स्वतंत्रता है। पर्याय अलग फिरती है, ऐसा नहीं है। द्रव्यके आश्रयसे (होती है)। डोर उसके हाथमें है-साधकके हाथमें। वह मुख्य रहता है। आत्मा कैसे समझना?
समाधानः- .. उसे कैसे समझमें आये, नौ तत्त्व और छह द्रव्य? ध्येय होना चाहिये।
.. उसे सुखका होता है। बाकी आत्मा कोई महिमावंत है, एक अलग तत्त्त्त्व है, उसमें अगाध ज्ञान भरा है, उसके अनन्त गुण कोई अपूर्व हैं, ऐसे भी महिमा आये। तत्त्व कोई अगाध गंभीरतासे भरा है, ऐसे भी महिमा आती है। कोई अगाध गंभीरता है। उसे एक ज्ञानसे पहचान सके ऐसा है। अन्य कोई रीतसे पहचाना नहीं जाये ऐसा है। ऐसा कोई महिमावंत पदार्थ (है)। अंतरमें जाये, उसमें दृष्टि करे, उसमें लीनता करे तो पहचानमें आये। ऐसा कोई अनुपम है कि जिसे किसीकी उपमा लागू नहीं पडती, ऐसा अनुपम है। ऐसे भी महिमा आती है। पदार्थकी अनुपमतासे, पदार्थकी