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गंभीरतासे, पदार्थके अनन्त गुणोंसे कि जिसके गुणोंका पार नहीं है। ऐसा अगाध तत्त्व कैसा होगा? ऐसे भी महिमा आये। ... परन्तु मुख्य उसे सुख (है), भटकता है उसमें सुखकी इच्छासे बाहर भटकता है। जहाँ दुःख लगता है, वहाँ-से एकदम पीछे मुड जाता है। जहाँ अत्यंत दुःख और आकूलता, जहाँ दुःखके प्रसंग आये वहाँ-से भागता फिरता है। कहाँ सुख मिले, कहाँ सुख मिले?
मुमुक्षुः- वह तो जीवकी स्वाभाविक पर्याय है कि दुःख हो वहाँ-से भागना। समाधानः- भागना, वही उसे परिणतिमें अन्दर होता है। .. लगे, फिर भले ही अपनी कल्पनासे दुःख लगा हो, परन्तु दुःख लगता है इसलिये वह भागता है। ऐसी उसे प्रतीत हो कि सुख बाहर तो नहीं है, जहाँ सुख लेने भागता हूँ, वहाँ कहीं भी सुख तो मिलता नहीं। इसलिये सुख कोई और जगह है। कोई अंतरमेंसे, ऐसा सुख अंतर तत्त्वमेंसे आ जाओ कि जो सुख अंतरमें होना चाहिये। ऐसा समझकर वापस मुडता है। जो शाश्वत है, जिसे बाह्य साधनकी कोई जरूरत नहीं है, जो पराधीन नहीं है, जो स्वयंसिद्ध है, जिसे कोई तोड नहीं सकता, जिसे कोई विघ्न नहीं आते। उसके लिये स्वयं वापस मुडता है। आत्मा ज्ञायक जानने वाला है, उसका ज्ञानगुण कोई अपूर्व है। ऐसा समझकर भी मुडता है, परन्तु मुख्य तो उसे सुखका हेतु हर जगह होता है। सुखका हेतु हर जगह होता है।