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ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। जो क्षण-क्षणमें जान रहा है, जो क्षण-क्षणमें सबका ज्ञान कर रहा है, जो भाव चले गये उन भावोंका भी ज्ञान करनेवाला है, सबका ज्ञान करनेवाला है, ज्ञेयका करनेवाला शक्तिवान कौन है? उसे ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। यह जाना, वह जाना ऐसे पर्यायको ग्रहण करनेका प्रयत्न नहीं करके अखण्ड ज्ञान ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। पर्याय-से ग्रहण होता है, उसके लक्षण-से ग्रहण होता है। पर्याय बीचमें आती है। पर्याय पर दृष्टि छोडकर ज्ञान ग्रहण कर।
गुरुदेवने बहुत समझाया है और गुरुदेवका परम उपकार है। इस पंचम कालमें गुरुदेवका जन्म हुआ और सबको तारनेका गुरुदेवका महान निमित्तत्व था। उनकी वाणी कोई अपूर्व थी। उनकी वाणीके पीछे पूरा मुक्तिका मार्ग, आत्मा-अदभुत आत्मा दिखे ऐसी उनकी वाणी थी। सब उन्होेंने समझाया है। वस्तु स्थितिके चारों तरफके पहलू उन्होंने समझाये हैैं। आत्माकी स्वानुभूति कैसे हो? साधक दशा क्या? द्रव्यदृष्टि क्या? पर्याय क्या? गुण क्या? सब गुरुदेवने समझाया है।
समाधानः- ... ऐसा कैसा है? तत्त्वका स्वभाव कैसा है? यह सब विचारना चाहिये। ऐसा तत्त्वका विचार होना चाहिये, यह सब करना चाहिये। बारंबार-बारंबार, बारंबार-बारंबार इसका मनन, चिंतवन, आत्माके बिना उसको चैन न पडे, मैं आत्मा कैसे प्राप्त करुँ? विभावमेंं रस नहीं लगे और चैतन्य स्वभावमें रस होना चाहिये। ऐसी अंतरमें-से तैयारी होनी चाहिये। ऐसी पात्रता होनी चाहिये। तब वह स्वभाव तरफ जा सकता है।
अनादि काल-से विभावमें एकत्वबुद्धि हो रही है। उसमें सबकुछ माना है और बाह्य क्रियामें धर्म मान लिया है। और शुभभाव-से तो पुण्यबन्ध होता है, स्वर्ग होता है। आत्म स्वरूप, शुद्धात्माकी पर्याय तो नहीं होती। स्वानुभूति नहीं होती। शुभभाव- से तो पुण्यबन्ध होता है। उससे मेरा स्वभाव तो शुभभाव-से भी भिन्न है। शुभभाव बीचमें आता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा सब आता है। परन्तु शुभ परिणाम अपना स्वभाव नहीं है। ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये। ऐसी श्रद्धा, उसका चिंतवन, मनन निरंतर ऐसा होना चाहिये। तो आत्माकी प्राप्ति हो सकती है। मैं उससे भिन्न हूँ। मैं भिन्न हूँ, ऐसा भीतरमें-से होना चाहिये। पहले तो वह विचार करता है, परन्तु ऐसा भीतरमें- से होना चाहिये। स्वभावमें-से आत्माको ग्रहण करना चाहिये। प्रज्ञा-से ग्रहण करना चाहिये और प्रज्ञा-से भिन्न करना चाहिये। ऐसा होने-से उसको निर्विकल्प स्वानुभूति हो सकती है। बारंबार उसका मनन, मैं न्यारा चैतन्य हूँ, शरीर भी मैं नहीं हूँ, विभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। भिन्न आत्माको पहचानना चाहिये।
मुमुक्षुः- ये सब तो विकल्पमें जायगा। ये तो विकल्पमेंं आयगा।