मुमुक्षुः- अखण्ड किस प्रकार-से आत्माको जानना? क्योंकि खण्ड खण्ड हो गया तो ज्ञान ज्ञान नहीं होता।
समाधानः- वास्तवमें खण्ड खण्ड नहीं हुआ है। खण्ड तो क्षयोपशम ज्ञान है। तो क्रम-क्रम-से जानता है। वास्तविकमें खण्ड हुआ ही नहीं है। पदार्थ तो अखण्ड शाश्वत है, अखण्ड है। इसलिये अखण्डको अखण्ड जान लेना। और खण्ड तो उसका क्षयोपशम ज्ञान क्रम-क्रमसे जानता है। इसलिये खण्ड दिखनेमें आता है। वास्तवमें एक ज्ञान पर दृष्टि रखे कि मैं ज्ञायक जाननेवाला हूँ। इसको जाना, इसको जाना, इसको जाना ऐसे नहीं, परन्तु मैं जाननेवाला स्वतःसिद्ध ज्ञायक हूँ। वह अखण्ड ही है। अखण्ड स्वभाव है उसका। भेद-भेद, वास्तविकमें भेद हुआ ही नहीं है। अनादिअनन्त द्रव्यका भेद होता ही नहीं है। वास्तविक भेद नहीं है। खण्ड तो क्षयोपशमज्ञानके कारण खण्ड हुआ है।
मुमुक्षुः- स्वपरप्रकाशक वह कब कहनेमें आये? उसे स्वपरप्रकाशकका अनुभव हो? किस कक्षामें? और स्वपरप्रकाशकका समय (क्या है)? एक ही समयमें स्वको जानता है, तभी परको जानता है? अथवा कैसे जानता है?
समाधानः- स्वपरप्रकाशक उसका स्वभाव ही है। कब क्या? स्वपरप्रकाशक उसका स्वभाव है। स्व और पर दोनों साथमें ही जानता है, उसमें क्रम नहीं पडता। अज्ञानी परको जानता है, स्वको नहीं जानता है। ज्ञानदशा होनेके बाद स्वपरप्रकाशकपना है। और प्रत्यक्ष स्वपरप्रकाशक केवलज्ञानी हैं।
जिसे स्वभावकी अस्तिका ज्ञान हुआ, विभाव मेरेमें नहीं है, ऐसा दोनों ज्ञान उसे साथमें वर्तता है। तो वह स्वपरप्रकाशकपना है। स्वपरप्रकाशक उसका स्वभाव है। वह स्वानुभूतिमें जाता है तब पर-ओर उपयोग नहीं है, इसलिये स्वानुभूतिका वेदन है। बाहर उपयोग आये तब दोनों जानता है। स्वको जानता है, परको जानता है। परिणति उसकी स्वपरप्रकाशक रहती है, ज्ञानदशा होनेके बाद। उपयोग एक तरफ रहता है। छद्मस्थका उपयोग क्रम-क्रमसे होता है। केवलज्ञानी एकसाथ स्वपरप्रकाशक है। बाकी सम्यग्दृष्टिज्ञकी परिणति स्वपरप्रकाशक रहती है।