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समाधानः- ज्ञानधारा चलती है, लेकिन अभ्यासरूप चलती है। सहजरूप नहीं होती। उसको ज्ञानधारा कहनेमें नहीं आती है, क्योंकि अभ्यास है।
मुमुक्षुः- बुद्धिपूर्वक होता है।
समाधानः- बुद्धिपूर्वक, विकल्पपूर्वक होता है, सहज नहीं होता है। सहज नहीं होता है। एकत्वबुद्धि टूटी नहीं है, उसका अभ्यास करता है। इसलिये उसको यथार्थ कहनेमें नहीं आता, अभ्यास करता है।
मुमुक्षुः- आगे चलकर?
समाधानः- आगे चलनेके बाद यथार्थ हो सकता है। यदि कारण यथार्थ होवे तो कार्य हो सकता है। उसका कारण जो भेदज्ञानका अभ्यास यथार्थ होवे तो कार्य आ सकता है। उसका उपाय भेदज्ञानका अभ्यास है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञानका अभ्यास? समाधानः- अभ्यास करता है। मुमुक्षुः- पहले तो बुद्धिपूर्वकका ही रहेगा। समाधानः- बुद्धिपूर्वक। विभावसे भिन्न हूँ, शुभाशुभ भाव-से भी मेरा स्वभाव भिन्न है। बीचमें शुभभाव आता है। मैं उससे चैतन्य पदार्थ भिन्न हूँ। और अनादिअनन्त तत्त्व हूँ। गुणका भेद और पर्यायका भेद होता है, वह गुणभेद भी मेरे स्वभावमें नहीं है। विकल्प बीचमें आते हैं, मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, तो भी ऐसे गुणका टूकडा और भेद, मेरेमें ऐसा गुणभेद भी नहीं है। ऐसे अखण्ड दृष्टि द्रव्य पर स्थापित करता है। उसका अभ्यास करता है। यथार्थ बादमें होता है।