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अनन्त काल-से जो नहीं हुआ ऐसा अनुपम तत्त्व, ऐसा अनुपम आनन्द और अनन्त गुण-से भरा चैतन्यद्रव्य, उसकी स्वानुभूति होती है। शून्यदशा नहीं होती है, जागृति होती है। विभावमें जो था, उससे उसका जीवन पलट जाता है। उसकी परिणति न्यारी हो जाती है। उसकी दशा कोई अदभुत हो जाती है। शून्यता नहीं होती। अपना चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करे, उसका भेदज्ञान करके भीतरमें जाय तो उसकी प्राप्ति होती है।
मुमुक्षुः- स्वानुभव तो पर्यायमें होता है। तो संपूर्ण आत्मा उस पर्यायमें आ जाता है? पर्याय तो एक समयकी है, तो संपूर्ण आत्मा उसमें कैसे आता है?
समाधानः- एक समयकी पर्याय है। परन्तु आत्मा तो अखण्ड है। एक पर्याय अंश है, वह पलट जाती है। आत्मा स्वयं अखण्ड है। वह अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है। एक पर्याय जो अंश है, उसमें पूरा अंशी नहीं आ जाता। पर्याय तो अंश है। स्वानुभूति होती है, स्वानुभूति पर्यायमें होती है, परन्तु उसमें द्रव्य अखण्ड है। पूरा द्रव्य पर्यायमें घूस जाता है, ऐसा नहीं है। पर्यायमें पूरा द्रव्य आ जाता है, ऐसा नहीं।
मुमुक्षुः- उसकी अनुभूति होती है? पर्यायमें अनुभूति होती है।
समाधानः- पर्यायकी अनुभूति होती है।
मुमुक्षुः- लेकिन समय तो बहुत ही कम रहता है। मालूम नहीं पडता होगा।
समाधानः- मालूम नहीं पडता है, ऐसा नहीं है। समय अंतर्मुहूर्त होता है। जिसकी दशा बदल जाती है, उसको वेदन-स्वानुभूति होती है। चैतन्यद्रव्य है, कोई दूसरी वस्तु नहीं है। स्वयं स्व ही है। स्वका अनुभव स्व करता है तो उसको ख्याल नहीं आता है, ऐसा नहीं होता। उसको ख्यालमें आता है, उसका वेदन होता है। पर्याय अंश है, वह अंश पलट जाता है, परन्तु द्रव्य तो शाश्वत रहता है। द्रव्य तो अनादिअनन्त शाश्वत है।
मुमुक्षुः- स्वानुभव होनेके पहले दशा किस प्रकारकी होती है?
समाधानः- उसके पहलेकी दशा तो वह भेदज्ञानका अभ्यास करता है। स्वानुभूतिके बाद भेदज्ञानकी सहज धारा रहती है। ज्ञायककी धारा, उदयधारा दोनों भिन्न रहती है। स्वानुभूतिके पहले वह अभ्यास करता है कि मैं चैतन्य भिन्न हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। मैं अनादिअनन्त शाश्वत तत्त्व हूँ। ये पर्याय तो क्षण-क्षणमें बदलता हुआ अंश है। मैं अंशी अखण्ड हूँ। ऐसे उसकी दृष्टि द्रव्य पर रहती है। उसका-दृष्टिका विषय द्रव्य रहता है और ऐसा अभ्यास करता है। यथार्थ तो स्वानुभूतिके बाद होता है। स्वानुभूतिमें यथार्थ होता है। उसके पहले उसकी प्रतीत करता है, उसका अभ्यास करता है। बारंबार मैं चैतन्य हूँ, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, ऐसा अभ्यास करता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानधारा चलती है।