२४०
है, परन्तु साक्षीरूप परिणमन जो होना चाहिये, वह परिणमन नहीं है और राग-द्वेषके साथ एकत्वबुद्धि है। मैं रागरूप हो गया, द्वेषरूप हो गया। ऐसी परिणति और ऐसी मान्यता, ऐसी एकत्वबुद्धि हो गयी है। परिणति पलटकर मैं ज्ञायक अनादिअनन्त शाश्वत हूँ। ऐसी प्रतीत और ऐसी परिणति अंतरमें होनी चाहिये कि मैं साक्षी ही हूँ, ज्ञायक ही हूँ। ज्ञातारूप परिणति प्रगट करे और वह परिणति प्रगट करनेका अभ्यास करे, वह जबतक सहज न हो जाय तबतक। सहज हो, तब उसका वास्तविक साक्षीपना होता है। सहज दशा हो तो साक्षी हो। पहले उसका प्रयत्न करे कि मैं अनादिअनन्त शाश्वत ज्ञायक हूँ। किसीके साथ एकत्वबुद्धि, एकमेक होना उसका स्वभाव नहीं है, परन्तु एकत्वबुद्धि मान्यतामें भ्रम हो गया है। परिणति एकत्व हो गयी है, उसे भिन्न करके, मैं ज्ञायक ही हूँ, पहले उसकी प्रतीति दृढ करे कि मैं ज्ञायक ही हूँ। अंतर-से समझकर प्रतीति करे। ज्ञायककी धारा यदि प्रगट हो तो उसे क्षण-क्षणमें ज्ञायककी धारा सहज रहे तो साक्षीभाव रहे। लेकिन वह ज्ञायकधारा रहती नहीं, साक्षीभाव रहता नहीं और राग- द्वेषके साथ एकत्वबुद्धि हो जाती है, इसलिये साक्षी नहीं रहता। मात्र कल्पना-से रटन करके साक्षी माने तो वह रहता नहीं। सहज साक्षीपना हो तो रहे। सहज नहीं है, इसलिये रहता नहीं।
मुमुक्षुः- अंतर-से समझकर करे तो। अंतर-से समझकर करे उसका अर्थ?
समाधानः- अंतर-से समझकर करे (अर्थात) वह परिणति प्रगट करे तो होता है। स्वानुभूति होनेके बाद जो सहज परिणतिकी दशा हो, जो साक्षी ज्ञायकधाराकी, वह सहज है। उसके पहले उसे अभ्यासरूप होता है कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। अभ्यासरूप करे। रटनमात्र करे तो वह (वास्तविक नहीं है)। क्षण-क्षणमें जब राग- द्वेष हो, उस क्षण ज्ञायक यदि मौजूद रहे तो एकत्व नहीं होता। उसी क्षण ज्ञायक रहता नहीं और दूसरी क्षणमें याद करे तो उस क्षणमें तो उसे एकत्व हो जाता है। क्षण-क्षणमें उसकी परिणतिको भिन्न करनेका अभ्यास करे। क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक ही हूँ, मैं साक्षी ही हूँ, ऐसा अभ्यास करे तो भी अभी अभ्यासरूप है। सहज तो बादमें होता है।
मुमुक्षुः- पहले तो आपने प्रश्नमें एक भूल निकाली कि बात-बातमें राग-द्वेष हो जाते हैं। वास्तवमें तो स्वभाव अपेक्षा-से राग-द्वेष होते नहीं है, परन्तु एकत्वता करता है।
समाधानः- एकत्वबुद्धि होती है, एकत्वता होती है। वस्तु स्वभावमें राग-द्वेष नहीं होते, परन्तु उसकी एकत्वबुद्धि हो रही है। वर्तमानमें तो, मैं रागरूप हो गया, द्वेषरूप हो गया, ऐसे उसकी परिणति, ऐसी मान्यता हो गयी है।