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मुमुक्षुः- एकत्वबुद्धिका नाश, ज्ञायकका बारंबार अभ्यास करे तो शुरूआतमें उस प्रकार-से भिन्नता हो।
समाधानः- तो शुरूआतमें उसे भिन्न पडनेका अवकाश है। उतनी महिमा स्वयंको ज्ञायकपनाकी आवे तो हो। पर-ओरकी, विभावकी महिमा छूटे, अपनी महिमा आवे, निज स्वभाव पहचाने कि मैं यह ज्ञायक हूँ, यह विभाव है। स्वभावकी महिमा तो उस तरफ उसका पुरुषार्थ बारंबार चले।
परमार्थ स्वरूप जो ज्ञानमात्र, ज्ञानमात्र वह मैं। ज्ञानमात्रमें पूरा ज्ञायक लिया है। जितना ज्ञानस्वभाव वह मैं, अन्य मैं नहीं। ज्ञानस्वभाव जितना मैं, परन्तु ज्ञानमें सब भरा है। उसमें पूरा ज्ञायक लिया है। पूरा महिमावंत ज्ञायक अनन्त शक्ति-से भरा पूरा ज्ञायक है। जितना ज्ञानमात्र, ज्ञायक सो मैं, ज्ञानमात्र सो मैं। उसमें प्रीति कर, उसमें रुचि कर तो उसमें-से अहो! उत्तम सुखकी प्राप्ति होगी। उसमें प्रीत कर, उसमें रुचि कर। उसमें संतुष्ट हो जा। उसमें रुचि, प्रीति, संतुष्ट और उसमें लीन हो, उसमें-से ही तुझे संतोष होगा। कहीं और तुझे जाना नहीं पडेगा। स्वानुभूति हो तो उसमें संतोष आदि सब होता है। और पहले उसीमें रुचि कर, उसमें प्रीति कर, उसमें संतोष मान। ज्ञानमात्रमें सब है। ज्ञायकमात्र आत्मामें सब है। ज्ञान अर्थात गुण नहीं, पूरा ज्ञायक।
मुमुक्षुः- ज्ञानमात्र कहने-से पूरा ज्ञायक लेना।
समाधानः- पूरा ज्ञायक लेना। जितना परमार्थ स्वरूप आत्मा, जितना यह ज्ञान है। ज्ञानमात्र आत्मामें रुचि, प्रीति, संतोष मान। दूसरी सब जगह-से छूट जा। पहले प्रतीत-से छूटे परिणति, फिर उसमें लीनता-चारित्रकी विशेषता हो। पहले उसकी प्रतीत कर, रुचि कर, लीनता कर। पहले स्वरूपाचरण चारित्र होता है, बादमें विशेष होता है।
मुमुक्षुः- पूरा ज्ञायक लेना मतलब?
समाधानः- ज्ञानमात्र आत्मा उसमें पूरा ज्ञायक (आता है)। उसमें रुचि कर, प्रीति कर। जितना यह ज्ञानस्वरूप आत्मा है, वह मैं। जितना यह ज्ञान है, ज्ञान माने पूरा ज्ञायक, एक गुण नहीं लेना है।
मुमुक्षुः- महावीरके बोधके पात्र कौन? उसमें सबसे पहले कहा कि सत्संगका इच्छुक। दस प्रकार कहे हैं, उसमें प्रथम सत्संगका इच्छक कहा है। इतनी प्रधानता देनेका क्या प्रयोजन है? गुरुदेव तो उसे निश्चयमें खताते थे। सत्पुरुष, सत्संग यानी तेरा सत आत्मा, उसका संग करो तो तुझे... श्रीमदजीको तो निमित्तरूप-से सत्पुरुष कहना है, ऐसा लगता है। उसमें क्या विशेषता है कि दसमें भी पहले उसे मुख्य कहा। उसमें क्या कहना चाहते हैं?
समाधानः- सत्संगमें निश्चय-व्यवहार दोनों अन्दर आ जाते हैं। अनादि कालसे