१२ स्वरूपमें गया तो प्रकाश (हुआ)। प्रकाशका तो दृष्टान्त है, परन्तु वह प्रकाश कोई बाहरका प्रकाश नहीं है। वह तो चैतन्यस्वरूप है। काली जिरी होती है वह कडवी- कडवी होती है। शुभभावना आकुलता.. आकुलता.. आकुलता उसका भाव है। काली जिरी ऐसी होती है। जो शक्करका स्वभाव है वह पूरा मीठा है। विकल्प टूटता है उसी क्षण आनन्द आता है।
समाधानः- ... सर्वांग आनन्द। चैतन्य स्वरूपमें चैतन्यघनमें चला गया। चैतन्य स्वरूपमें चला गया। बाहर दृष्टि, बाह्य उपयोग छूट गया, अंतरमें उपयोग चला गया। अंतरमें स्वानुभूति असंख्य प्रदेशमें होती है। मनका द्वार कहनेमें आता है, परन्तु मन निमित्त है। बाकी पूरे प्रदेशमें (आनन्द आता है)।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- पहले नक्की करे। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान द्वारा नक्की करता है कि मैं यह आत्मा ही हूँ। ये विभाव है वह मैं नहीं हूँ। मैं आत्मा ही हूँ, ऐसा नक्की करता है। मैं आत्मा ही हूँ, ये सब मुझ-से भिन्न है। ऐसा निर्णय करके अंतरमें स्थिर होता है। जिस क्षण विकल्प टूटे, उसी क्षण स्वानुभूति होती है। दोनों एक ही क्षणमें हैं। पहले विकल्प टूटता-टूटता जाता है, बादमें स्वानुभूति होती है, ऐसा नहीं होत। सूक्ष्ममें सूक्ष्म विकल्प और ऊच्च-से उच्च विकल्प, वह विकल्प ही है। मन्द या तीव्र, वह सब विकल्प है। जिस क्षण वह टूटता है, उसी क्षण निर्विकल्प (होता है)। यहाँ निर्विकल्प होता है, उसी क्षण टूटता है। उसी क्षण आनन्द और उसी क्षण स्वानुभूति। सब साथमें ही है।
मुमुक्षुः- विकल्प टूटे तब एकका ध्यान रहता होगा न?
समाधानः- अकेला चैतन्य, अनन्त गुणसे भरा अकेला चैतन्य। ज्ञान अर्थात अकेला गुण नहीं, पूरा ज्ञायक।
मुमुक्षुः- उपयोग अंतरमें रखा तो एकका ही ध्यान रह जाता है न? राग छूट जाय तो।
समाधानः- राग छूट जाये तो अकेला ज्ञायक रहता है। ज्ञानस्वरूप आत्मा। समाधानः- ... दृष्टि पर तरफ है इसलिये विभाव दिखनेमें आता है। दृष्टि और उपयोग दोनों पर तरफ है, इसलिये विभाव दिखनेमें आता है। अनादि ऐसी विभावकी परिणति हो रही है। आत्मा तरफ दृष्टि नहीं है। अनादि काल-से दृष्टि हुयी नहीं। विभाव.. विभाव, विभावमें एकत्वबुद्धि (हो रही है)। विभाव मेरा और विभाव मैं हूँ, ऐसी एकत्वबुद्धि मिथ्या भ्रम हो रहा है। निर्मल है, निर्मल है तो भी देखनेमें नहीं आता। उसका स्वानुभव नहीं है। देखनेमें भी नहीं आता, प्रतीत भी नहीं है। कुछ नहीं है,