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इसलिये परपदार्थ तरफ दृष्टि, पर मैं, पर मेरा, ऐसी प्रतीत, ऐसा ज्ञान और ऐसा आचरण सब ऐसा हो रहा है। दृष्टि, ज्ञान और सब (विपरीत है)। दृष्टि विपरीत है इसलिये ज्ञान भी ऐसा हो गया और आचरण भी ऐसा हो गया। सब ऐसा अनादि काल- से विभाव हो रहा है। स्वभाव तरफ दृष्टि करे तो निर्मलता ही भरी है। निर्मलता तरफ दृष्टि नहीं देता।
जैसे स्फटिकके भीतरमें देखो तो निर्मल ही है। ऊपर-ऊपर सब लाल, काला दिखनेमें आता है। तो सब ऐसा देखनेमें आता है। भीतरमें निर्मलता भरी है। भीतरमें दृष्टि दे, मैं निर्मल स्वभावी अनादिअनन्त शाश्वत चैतन्य हूँ, द्रव्य शाश्वत है, उसमें कोई बिगाड नहीं होता है। विभाव परिणतिमें सब होता है, पर्यायमें होता है, द्रव्यमें तो होता ही नहीं है। ऐसी दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। अनादि कालमें ऐसा किया ही नहीं।
मुमुक्षुः- सुननेमें तो उपयोग लगता है, पर अन्दरमें उपयोग लगता नहीं। विकल्प ही विकल्प (चलते हैं)।
समाधानः- किसमें उपयोग लगता है? बाहरमें?
मुमुक्षुः- सुननेमें।
समाधानः- सुननेमें उपयोग (लगता है)। भीतरमें अनादि काल-से दृष्टि नहीं दी। बाहरमें तो उपयोग स्थूल है तो स्थूल कर लेता है। परन्तु सूक्ष्म करनेमें उसको बहुत प्रयत्न लगता है। प्रयत्न करता नहीं, उसकी लगन नहीं है, महिमा नहीं है। उपयोग सूक्ष्म करे तो अपनी ओर दृष्टि जाती है। उपयोग सूक्ष्म करता नहीं है। स्थूल-स्थूल उपयोग बाहर भटकता है। अशुभमें-से शुभमें आता है। परन्तु शुद्धात्मा तरफ दृष्टि करनी है। वह सूक्ष्म दृष्टि करे तो अपना चैतन्यस्वरूप ग्रहण होता है, तो पकडमें आवे। दृष्टि बाहर ही बाहर रहती है। उपयोग सूक्ष्म, धीरा करके अंतर दृष्टि तो पकडमें आता है। सूक्ष्म दृष्टि करता नहीं।
मुमुक्षुः- सूक्ष्म दृष्टि करनेके लिये ...
समाधानः- सूक्ष्म दृष्टि करनेके लिये उसकी लगनी, महिमा, वह सर्व सुखरूप है, बाकी सब दुःखरूप है, दुःख लगे और अपनेमें सुखकी प्रतीति होवे कि भीतरमें ही सुख है, सर्वस्व भीतरमें है, बाहरमें कुछ नहीं है। ऐसी यदि प्रतीत करे, ऐसा निर्णय करे तो भीतरमें उपयोग जाता है, तो दृष्टि सूक्ष्म होती है।
बाहरमें अच्छा नहीं लगे, चैन नहीं पडे, ये सब मेरे स्वभाव-से विपरीत है, यह मेरा स्वभाव नहीं है। स्वभाव नहीं है इसलिये आकुलतारूप (है), आकुलताका वेदन होता है। सुख न लगे, धीरा होकर देखे तो सब आकुलतारूप है। निराकुल स्वरूप