१४ आत्मा यदि लगे, उसमें आनन्द लगे तो अपनी तरफ जाय। उसकी महिमा लगे। जगतमें सर्वस्व होवे तो मैं आत्मा ही हूँ। ऐसा अनुपम तत्त्व, जिसमें किसीक उपमा लागू नहीं होती। ऐसा अनुपम तत्त्व मैं हूँ। बाहरकी कोई वस्तु अनुपम नहीं है। महिमा नहीं आवे तो भीतरमें जाये कैसे? भले यथार्थ महिमा तो जिसकी परिणति यथार्थ हो, उसे यथार्थ महिमा होती है। परन्तु पहले उसका अभ्यास तो हो सकता है। अभ्यास करे कि मैं चैतन्य महिमावंत हूँ। ये कोई महिमावंत नहीं है। ऐसा पहले भी हो सकता है। ऐसा कारण तैयार होता है, बादमें कार्य आता है।
भेदज्ञानका अभ्यास करे, यथार्थ भेदज्ञान तो बादमें होता है, परन्तु पहले उसका प्रयास होता है। उसकी महिमा, लगन, उसका भेदज्ञानका अभ्यास होता है। क्षण-क्षणमें मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, ये सब मेरा नहीं है, मैं चैतन्य हूँ, मेरे चैतन्यमें सर्वस्व भरा है, ऐसा भेदज्ञानका अभ्यास पहले होता है। भेदज्ञान बादमें होता है, परन्तु पहले अभ्यास होता है। पहले महिमा, अभ्यास सब हो सकता है।
मुमुक्षुः- माताजी! विचार करने-से अभ्यास होता है?
समाधानः- विचार करे, विचारके साथ अंतरमें लगन होनी चाहिये। मात्र विचार- विचार नहीं, परन्तु चैतन्यकी लगन और चैतन्यकी महिमा लगे, महिमापूर्वक विचार करे तो आगे बढे। उसे जरूरत लगे कि करने योग्य तो बस, एक आत्मा ही है। जगतमें तो करने योग्य हो तो एक आत्माका स्वरूप ही प्राप्त करने योग्य है। ऐसी जरूरत लगनी चाहिये। तो जरूरत पूर्वक यदि विचार करे, यथार्थ समझन करे, उसकी जरूरत लगे तो वह विचार करे। तत्त्व विचार साधन है, परन्तु रुचिपूर्वक होना चाहिये।
प्रथम भूमिका विकट लगती है, परन्तु अपना स्वभाव है, वह तो सहज है। तो सहजपने प्रगट हो तो ज्ञायककी धारा सहज (हो जाती है)। फिर परिणति उसके स्वभाव तरफ ही, साधककी परिणति स्वभाव तरफ दौडती रहती है। उसका पुरुषार्थ उस ओर जाता है। अपना स्वभाव (है)।
प्रथम भूमिकामें अभ्यास करे तो उसे कठिन लगता है। बाकी तो अपना स्वभाव है इसलिये सहज है और सुगम है। जिसे स्वभाव प्रगट हो, उसे सहज धारा प्रगट हो जाती है। ज्ञायककी धारा, स्वानुभूति, उसकी पुरुषार्थकी धारा सहजपने, सुगमपने प्राप्त होती है। स्वभाव है इसलिये वह दुर्लभ नहीं है। दुर्लभ अनादि कालमें स्वयं पर तरफ गया है इसलिये उसे दुर्लभ हो गया है। परन्तु स्वभाव तरफ दृष्टि करे और स्वभाव तरफ प्रयास करे तो वह सुगम और सरल है। आचार्यदेव कहते हैं न, तू उग्रता- से छः महिने पुरुषार्थ कर। फिर यदि प्राप्त न हो (ऐसा नहीं है), उसे प्राप्त हुए बिना रहता ही नहीं। परन्तु स्वयं प्रयास नहीं करता है। प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!