२८
समाधानः- ... उसे धर्म हो, थोडा सामायिक या उपवास कर ले तो धर्म हो जाय, ऐसा सब मानते थे। उसमें ऐसी अंतर दृष्टि बतानेवाले ऐसे गुरुदेव (मिले)। ज्ञायक आत्माको पहचान, यह सब कहनेवाले मिले। स्थानकवासी, देरावासी, दिगंबर सबकी दृष्टि बाहर थी। दिगंबरोंमें भी इतना पढ ले, इतना रटन कर ले तो धर्म होगा या तत्त्वार्थ सूत्र (पढ लें), उसमें धर्म मानते थे। ऐसेमें गुरुदेवने दृष्टि दी। समयसार तो कोई पढते नहीं थे। गुरुदेवने समयसारके रहस्य खोले। पण्डित लोग कहते थे न? हम लोग समयसार पढते थे, उसमें आत्माकी बात आती थी उसे छोड देते थे। कितने लाखों जीवोंको (मार्ग बताया)। सच्चा यथार्थ होना वह पुरुषार्थकी बात है। परन्तु अंतरमें कुछ करनेका है, ऐसा मार्ग गुरुदेवने बताया, ऐसा मार्ग बता दिया।
मुमुक्षुः- .. आते ही पाप तो जैसे दूर ही भाग जाते हैं और मिथ्यात्व थर- थर काँपने लगता है। ऐसा मुझे अटूट विश्वास हुआ है कि आपके चरणोंकी कृपा- से ही मेरे भवका अंत आनेवाला है। कृपा करके यह बताईये कि सामान्य ज्ञानका आविर्भाव और विशेष ज्ञानका तिरोभाव कैसे करें?
समाधानः- सामान्य स्वरूप आत्मा है, अनादिअनन्त। वही स्वरूप सामान्य स्वरूप (है)। विशेष, पर-से दृष्टि उठाकर सामान्य पर दृष्टि स्थापित करने-से सामान्यका आविर्भाव होता है, विशेषका तिरोभाव होता है। दृष्टि बाह्य है, दृष्टि विभावमें एकत्वबुद्धि है। बाहरमें विभावके विशेष पर है तो सामान्य स्वरूप जो आत्मा, अखण्ड आत्मा उसके भेद पर लक्ष्य नहीं करके, एक सामान्य पर दृष्टि करने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। तो सामान्यका आविर्भाव होता है, विशेषका तिरोभाव होता है।
मुमुक्षुः- माताजी! ये भेद पर-से दृष्टि क्यों नहीं हटती है?
समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता-से नहीं हटती है। पुरुषार्थ मन्द है और रुचि बाहरमें है, एकत्वबुद्धि है। इसलिये नहीं हटती है। भीतरमें रुचि, महिमा (आये)। आत्माका स्वरूप सर्वस्व है और ये सर्वस्व नहीं है-विभाव सर्वस्व नहीं है। आत्मा ही सर्वस्व है, ऐसा भीतरमें लगने लगे, इसकी महिमा लगे तो दृष्टष्टि (वहाँ-से) उठ जाय, तो दृष्टि अंतरमें आती है।