Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 163 of 1906

 

ट्रेक-

०२८

१६३

अर्थ हो गया। पर्याय स्वतंत्र परिणमती है, अब मैं क्या करुँ? ऐसा ही होने वाला था। ऐसे नहीं। भावना, उसकी जिज्ञासा आदि पर्याय ऐसी परिणमती है। ऊपर-ऊपर नहीं परिणमती। ज्ञायक हो गया, जो साधककी ओर मुड गया, उसकी तो सभी पर्याय साधनाकी ओर मुडती है। अमुक बाधक अंश गौण है, लेकिन साधनाकी ओर उसकी पर्याय होती है।

मुमुक्षुः- उसका क्रमबद्ध अच्छा है।

समाधानः- हाँ, उसका क्रमबद्ध है। बिना पुरुषार्थ दृष्टि ही नहीं है। क्रमबद्ध ही है, क्या करुँ? ऐसा करता है उसका क्रमबद्ध (अच्छा नहीं है)। जिसे पुरुषार्थकी कोई भावना नहीं है, बचाव करे कि क्रमबद्ध है, क्या करुँ? तो उसका क्रमबद्ध वैसा है। पुरुषार्थ होनेवाला होगा, वह ये सूचित करता है, पुरुषार्थ यानी मैं कुछ करुँ। कुछ बल, कोई पराक्रम करुँ, पुरुषार्थमें वैसी ध्वनि और ऐसा भाव रहा है। फिर पुरुषार्थ होनेवाला होगा, उसका कोई अर्थ नहीं है। वह तो एक वस्तुस्थिति बतायी। तेरी भावनामें तो मैं मेरे पुरुषार्थसे, बलसे बदलूँ, इसप्रकार तेरी भावनामें तो ऐसे ही आना चाहिये। भावना बदलूँ, मैं पलटुँ, जो एकत्वबुद्धि हो रही है उसे बदलूँ। तेरी भावनामें ऐसा आना चाहिये कि मैं पुरुषार्थ करुँ। तो उसके साथ क्रमबद्ध जुडा ही है। उन सबमें पुरुषार्थ मुख्य है। क्रमबद्ध, स्वभाव, काललब्धि सबमें पुरुषार्थ (होता है)।

आत्मार्थीको, जिसे मोक्ष प्रगट करना है, सुख प्रगट करना है, आत्माकी स्वानुभूति प्रगट करनी है, उसका वजन पुरुषार्थकी ओर आना चाहिये। तो वह साधनाकी ओर मुड सकता है। वस्तुको जाने कि मैं किसीका कुछ नहीं कर सकता। लेकिन मैं मेरी भावना कर सकता हूँ। मैं मेरे द्रव्यको पहचानकर द्रव्यकी ओर मुड सकता हूँ, उसमें मैं स्वतंत्र हूँ।

आत्मामें कर्ताबुद्धि छुडानेका उनका प्रयोजन था। तुझे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी तो सब क्रमबद्ध होता है। तू उसका कर्ता मत बन, ज्ञाता हो जा। ऐसा कहना था। दूसरा कोई पूछे तो ऐसा ही कहते थे, तुझे क्रमबद्ध ही नहीं है। तुझे ज्ञायककी दृष्टि प्रगट नहीं हुयी। जो ज्ञाता हुआ उसे ही क्रमबद्ध है, ऐसा कहते थे। और कोई काललब्धिका कुछ कहे तो गुरुदेवको वह पसन्द नहीं था, ये काललब्धिकी बात करता है, ऐसा कहते थे।

जितने भव भगवानने देखे होंगे उतने होंगे। गुरुदेवको पसन्द नहीं था। संप्रदायमें वह बात उन्हें बैठती ही नहीं थी। जितने भव होनेवाले होंगे, ऐसे पुरुषार्थ रोकनेवाली बात नहीं करनी, ऐसा कहते थे। इसमें उनका कहनेका आशय अलग था। कर्ताबुद्धि छुडानेको और ज्ञायकता प्रगट करने हेतु।