Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

५० हैं। बहुत लिख लिया। हमारी उलझन चाहे जितनी भी हो, परन्तु परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना चैन-से बैठ सके ऐसा नहीं है। इसलिये हम कहीं भी संतुष्ट हो ऐसा नहीं है। आपका दिलासा शान्ति देता है। परन्तु भगवान त्रिलोकीनाथको वश किये बिना चैन-से बैठ सके ऐसा नहीं है। इस संसार-से अब बस होओ, बस होओ। पूज्य श्रीमदजी लिखते हैं कि प्राणियोंको मृत्युकालमें यम जितना दुःखदायक लगता है, उससे भी अधिक दुःखदायक हमें संग लगता है।

यह भावना भाकर मुझ-से हुआ अविनय, अशातना, अभक्ति हुयी हो तो उसके लिये सच्चे हृदय-से आपकी क्षमा चाहता हूँ। आपकी दीर्घायु इच्छता हूँ।

समाधानः- ... अंतरमें ज्ञायकदेव प्रगट न हो तबतक उसे संतोष नहीं होता। परन्तु शान्ति रखकर प्रयत्न करे। स्वयं बारंबार ज्ञायकदेवको ग्रहण करके उसका ही अभ्यास (करे)। उसका स्वभाव अंतरमें-से कैसे ग्रहण हो? बारंबार उसका अभ्यास करे। उलझनमें आकर ऐसी उलझनमें न आ जाय कि एकदम उलझ जाय। एकत्वबुद्धि तोडनेका शान्ति रखकर प्रयत्न करना। प्रयत्न स्वयंको ही करनेका है।

अपनी भूल-से स्वयं विभावमें दौड जाता है। अपनी मन्दता-से। स्वयं पुरुषार्थ करे तो अपनी ओर आता है। इसलिये बारंबार गहराईमें जाकर स्वभावको ग्रहण करनेका बारंबार प्रयत्न करे। जैसे अनादिका अभ्यास सहज हो गया है, वैसे चैतन्यका अभ्यास उसे सहज जैसा, बारंबार सहज जैसा हो जाय ऐसा करे तो अंतरमें-से ज्ञायक प्रगट हुए बिना नहीं रहता।

यथार्थ बादमें होता है, परन्तु पहले उसे दुष्कर पडे ऐसे नहीं परन्तु बारंबार करे तो सहजपने पहचान होती है। ये अनादिका अभ्यास उसे सहज हो गया है। परन्तु चैतन्य तो अपना सहज स्वभाव है, परन्तु वह दुष्कर हो गया है। अपना सहज अपनेमें- से प्रगट हो ऐसा है, तो भी उसे दुष्कर हो गया है। परन्तु बारंबार उसका अभ्यास करे तो वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता। उसका अभ्यास, उसका परिचय बारंबार ज्ञायकका करे तो प्रगट हुए बिना नहीं रहता। बाहर-से देव-गुरु-शास्त्रका परिचय और अंतरमें चैतन्यका परिचय।

मुमुक्षुः- ज्ञानीको भी मार्गके क्रमका सेवन करना पडता है। तो मुमुक्षुओंको ऐसे क्रमका सेवन करना पडता होगा? या शीघ्र प्राप्त हो जाय ऐसा भी है?

समाधानः- शीघ्र प्राप्त हो सकता है, लेकिन उसके पुरुषार्थकी मन्दता है। एक ही उपाय है-भेदज्ञानका। जो एकत्वबुद्धि हो रही है उसे, चैतन्य ज्ञायक मैं भिन्न हूँ और यह भिन्न है। विभाव और स्वभाव दोनोंको भिन्न-भिन्न करना। उसमें यथार्थ रुचि, यथार्थ महिमा, लगन लगनी चाहिये। अंतरमें तत्त्व विचार करके स्वयंको स्वभाव ग्रहण