५२ है, इसलिये शुभभावमें आता है। उसे शुद्धात्माका ध्येय होता है। शुभको सर्वस्व मान ले तो वह गलत है। उसे श्रद्धा (हो जाय कि) शुभमें सब आ गया और उसमें मेरा धर्म हो गया। ऐसा माने तो गलत है। परन्तु अन्दर शुद्धात्मा प्रगट करनेका (ध्येय है)। शुभभाव-से भी मैं भिन्न हूँ। श्रद्धा तो ऐसी है, परन्तु उसमें वह टिक नहीं पाता, इसलिये शुभभावमें, जिस पर स्वयंको प्रेम है, जिसने प्रगट किया, भगवानने संपूर्ण प्रगट किया, गुरुदेव साधना करते हैं और शास्त्रोंमें उसकी-आत्माकी सब बातें आती हैं। उनके लिये मैं क्या करुँ? क्या करुँ और क्या न करुँ? इसलिये उसे पूजा, भक्ति, सेवा इत्यादि सब आता है। गुरु-सेवा, जिनेन्द्र पूजा आदि आता है। स्वाध्यायादि आता है। वह खडा रहे तो कहाँ खडा रहेगा?
मुमुक्षुः- अशुभमें चला जायगा।
समाधानः- अशुभमें चला जायगा। इसलिये वह महिमामें खडा रहता है। जिनेन्द्रकी महिमा, गुरुकी महिमा। स्वयंको चैतन्यकी महिमाके पोषणके लिये उसमें खडा रहता है। उस राग-से अंतर कुछ प्रगट होता है, ऐसी उसकी श्रद्धा नहीं है। परन्तु वह बीचमें आता ही है, आये बिना नहीं रहता। उसे ऐसे तीव्र कषाय नहीं होते, मन्द पड जाते हैं। इसलिये जिनेन्द्र पूजा, गुरु-सेवा आदि सब आता है। जिसे गृद्धि नहीं होती। जो सब विभाव छोडनेके लिये तैयार होता है, उसे वह सब मन्द पड जाता है। मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो? ऐसी रुचि है। मैं शुद्धात्मा निर्विकल्प तत्त्व हूँ, मुझे कोई विकल्प नहीं चाहिये। निर्विकल्प तत्त्व कैसे प्रगट हो? वह प्रगट नहीं हुआ है। उसकी श्रद्धा यथार्थ रूप-से जो होनी चाहिये, वह भी नहीं है। मात्र बुद्धि-से (नक्की) किया है। तो उसे शुभभावमें जिनेन्द्र पूजा या गुरु-सेवा आदि सब आता है। स्वाध्याय।
शास्त्रमें आता है न? श्रावकके कर्तव्य। स्वाध्याय, ध्यान आदि। परन्तु वह ध्यान यथार्थ ध्यान नहीं होता। शुभभावरूप होता है। (शुभभाव-से) धर्म होता है ऐसा वह नहीं मानता। परन्तु श्रावक बहुभाग पूजा, भक्ति, सेवा आदिमें जुडते हैं।
मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवको तो सुवर्णपुरीके प्रति बहुत प्रेम था। तो आपके पास तो देवके भवमें-से आते होंगे। हमें तो बहुत विरह लगता है कि गजब हो गया। तीर्थंकरका द्रव्य इस कालमें हमारे नसीबमें कहाँ? हमारे भाग्यमें कहाँ?
समाधानः- महाभाग्य भरतक्षेत्रका। गुरुदेवका यहाँ अवतार हुआ। इतना उपदेश उनका आया, कोई अपूर्व वाणी बरसी। उनका तीर्थंकरका कोई अपूर्व द्रव्य था। कितने लाखों, क्रोडो जीवोंको मार्ग बताया। गुजराती, हिन्दी सबको। (कितनोंका) निवास यहाँ सुवर्णपुरीमें हो गया। बरसों तक यहाँ ४५-४५ साल (वाणी बरसायी)। विहार हर जगह करते थे।