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वह गति ही है। कौन-सी गति मिलेगी और कहाँ जाना है? वहाँ सुख थोडा ही है। .. श्रद्धा हो तो अन्दर समाधान रहे। आत्मा जहाँ भी जाय, वहाँ आत्मा तो शाश्वत ही है। कर्म जो है, वह कहीं भी साथमें ही आनेवाला है। दूसरे भवमें जाय इसलिये यहाँ जो कर्मका उदय आया वह उदय यहाँ पूरा हो जायगा? कर्मका उदय तो साथमें ही रहनेवाला है। इसलिये कर्मका उदय यहाँ भोगना या दूसरे भवमें भोगना, सब समान है। अतः यहाँ शान्ति-से भोग लेना।
कहते हैं न? बन्ध समय जीव चेतीये, उदय समय शा उचाट? जिस समय तेरे परिणाममें बन्ध होता है, उस वक्त तू विचार करना कि यह परिणाम मुझे न हो। मुझे देव-गुरु-शास्त्रके परिणाम हो। उस वक्त तू विचार करना। परन्तु जब कर्मका उदय आता है, जब बाहरमें उसका संयोग आवे, फेरफार हो प्रतिकूलताका, तब तू बदल नहीं सकता। तब तो शान्ति और समाधानके अलावा कोई उपाय नहीं है। अब-से मुझे ऐसे परिणाम न हो उसका ध्यान रख। बाकी उदय आनेके बाद हाथमें कुछ नहीं रहता।
ऐसा जीवन होना चाहिये कि देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति एवं आराधना, आत्माकी आराधना कैसे हो, उसके साथ। आत्माकी आराधना। गुरुदेवने, शास्त्रमें जो कहा, उसे आराधना कहते हैं। ऐसा जीवन होना चाहिये। इस पंचमकालमें ऐसे गुरु मिले, ऐसा मार्ग मिले, ऐसा समझना (मिले), आत्माकी बात कोई समझता नहीं था, आत्माकी बात गुरुदेवने समझायी। गुरुदेवने भगवानकी पहचान करवायी। भगवानका स्वरूप वीतराग होता है आदि सब गुरुदेवने (समझया)। पुण्यके कारण ऐसा योग मिला। उसमें स्वयंको अपनी आत्म आराधना करने जैसी है।