७२ मन्दता, पुरुषार्थकी मन्दता।
जबतक अंतरमें उसकी पहचान नहीं होती, तबतक उसकी रुचिकी तीव्रता करे, भावना रखे। शुभभावनामें मेरे हृदयमें जिनेन्द्र देव होओ, मुझे दर्शन जिनेन्द्र देवके, मुझे दर्शन गुरुके, मेरे हृदयमें गुरु, हृदयमें शास्त्र, मेरी वाणीमें वह होओ, ऐसी भावना उसे होती है। दूसरा कुछ नहीं चाहिये। एक आत्मा और देव-गुरु-शास्त्र। जबतक आगे नहीं बढता है तबतक।
आत्माका ध्येय (हो), तबतक शुभभावनामें खडा रहे। परन्तु उसे शुद्धात्मा कैसे प्रगट हो, ऐसी लगनी तरफ उसका प्रयत्न होता है। ऐसी रुचि बढाने तरफ उसका प्रयत्न होता है। ज्ञानमात्र ज्ञायकमें ही सब भरा है। ज्ञानमें उसे ऐसा लगता है कि ज्ञानमें सब भरा है? ज्ञानके अन्दर ही सब भरा है। वह ज्ञायक वस्तु है पूरी। और अनन्त शक्तियों-से भरी वस्तु है। अनन्त महिमाका भण्डार और अनन्त सुखका, आनन्दका और अनन्त ज्ञानका भण्डार है। ज्ञानमात्रमें ही सब भरा है। ज्ञानमात्र अर्थात पूरी ज्ञायक वस्तु है। ज्ञान अर्थात कोई एक गुण ऐसा नहीं है। ज्ञान अर्थात पूरी वस्तु ज्ञायक है। उसे पहचान और उस तरफ जा। उसमें सब भरा है। अनन्त शक्तियाँ भरपूर भरी है।
मुमुक्षुः- पूरे ज्ञायकका ग्रहण (हो जाता है)। समाधानः- पूरे ज्ञायकका ग्रहण करना। ज्ञान अर्थात सिर्फ जाननामात्र नहीं, पूरी अखण्ड वस्तु ग्रहण करनी।