२५१
वैसे क्षयोपशम ज्ञान स्थूल है कि वह आश्रयवाला है। तो भी इसप्रकार सूक्ष्मता- से ग्रहण करनेकी ज्ञानमें शक्ति है। मनवाला है, इन्द्रियोंका आधार लेता है। तो फिर जो ज्ञान बाहर-से ग्रहण करता है, वैसे अपने ज्ञान लक्षणको क्यों नहीं पहचान सके? कितने जातके विकल्प है, यह ज्ञान है और मैं ज्ञायकस्वभावी आत्मा हूँ। स्वयंको पहचाननेकी शक्ति है, लेकिन वह सूक्ष्म होकर देखता ही नहीं है।
मुमुक्षुः- दृष्टान्त इतना सरल लगता है। मनुष्यकी पहचान होती है। क्यों पहचानता है, उसे कह नहीं सकते। फिर भी वह निश्चितरूप-से पहचानमें आता है।
समाधानः- निश्चितरूप-से, निःशंकपने बिना तर्कके पहचानमें आता है। कोई दूसरा कहे कि यह नहीं है, तो भी माने नहीं। उतना निःशंकपने पहचानता है। वैसे ही निःशंकपने आत्माकी पहचान होती है, परन्तु वह पहचानता नहीं है।
मुमुक्षुः- वैसे ही निःशंकपने आत्माकी पहचान होती है।
समाधानः- वैसे ही निःशंकपने आत्माकी पहचान होती है। फिर कोई कुछ भी कहे तो भी उसमें उसे तर्क या और कुछ नहीं आता। ऐसे निःशंकपने आत्माकी पहचान हो सकती है, परन्तु वह पहचानता नहीं है। ऐसे ही लक्षण द्वारा वह आत्माकी (पहचान कर सकता है)। स्वयं ही है, इस तरह पहचान सकता है। उसके अस्तित्व-से, ज्ञायकता- से पहचान सकता है। वह पहचानता नहीं है, प्रयत्न नहीं करता है। सूक्ष्म उपयोग करके अन्दर देखता नहीं है।
हजारों लोगोंके तर्कके बीचमें भी वह स्वयं निःशंकपने कोई तर्कको माने नहीं इस प्रकार निःशंकपने स्वयंको पहचान सकता है। सब बताते हैं, परन्तु देखना स्वयंको है कि इस लक्षण-से पहचान। उसका लक्षण बताते हैं। तेरा ज्ञान लक्षण है, उस लक्षणमें पूरा ज्ञायक है उसे पहचान। परन्तु स्वयं देखता नहीं है।
सम्यग्दर्शन होनेके बाद पूरा ब्रह्माण्ड फिर जाय तो भी वह फिरता नहीं, ऐसी निःशंकता उसे अन्दर (होती है)। चैतन्यकी स्वानुभूतिमें उसे ऐसी निःशंकता आ जाती है। ज्ञायक लक्षणको पहचाने। प्रतीतमात्रमें भी उतनी निःशंकता होती है, तो स्वानुभूतिमें तो अलग ही हो जाता है। ग्रहण करनेमें भी उसे कितनी शक्ति (होती है)। ये तो अरूपी आत्मा स्वयं ही है। स्वयंको ग्रहण कर सकता है।
मुमुक्षुः- अपनी है इसलिये। विचार करने पर ऐसा ही लगता है कि रुचिकी क्षतिके कारण नहीं होता है, बाकी तो निश्चितपने काम हो सकता है।
समाधानः- रुचिकी ही क्षति है। रुचि बाहर जाती है। अन्दर रुचि इतनी लगे, इतनी लगन लगे तो स्वयं स्वयंको पहचाने बिना रह नहीं सकता। चैन पडे नहीं, चैतन्यका स्वभाव प्रगट हुए बिना तो स्वयं अपनेको ग्रहण किये बिना रहता ही नहीं। रुचिकी