७० दर्शानेवाले सबको मैं साथमें रखता हूँ। उनके बिना मुझे नहीं चलेगा। कोई कर नहीं देता, फिर भी मैं सबको साथमें रखता हूँ, आपके बिना नहीं चलेगा। जिनेन्द्र देव, गुरु मार्ग बताते हैं। आचार्य साधना करते हैं। मैं उन सबको साथमें रखता हूँ। मेरे हृदयमें विराजमान करके मैं मार्गको साधता हूँ।
(चैतन्य) द्रव्य शाश्वत है, उसे लक्ष्यमें लेकर उसकी प्रतीत, ज्ञान और चारित्रकी लीनता (हो), उन सबमें मैं देव-गुरु-शास्त्र भगवानको साथमें रखता हूँ। पहले सम्यग्दर्शन- से लेकर आखीर तक पंच परमेष्ठी भगवंत अपनी भावनामें साथमें होते हैं। सम्यग्दृष्टिको होते हैं, मुनिओं भी पंच परमेष्ठी भगवंतोंका स्मरण करते हैं। आचार्यदेव कहते हैं न कि, मैं दीक्षा लेने जा रहा हूँ, मैं सबको निमंत्रण देता हूँ। आचार्य, मुनिवर सब देव-गुरु-शास्त्रको साथमें ही रखते हैं।
शुभभावनामें पंच परमेष्ठी भगवंत। स्वरूपमें लीन हो जाय निर्विकल्प दशामें, बाहर आये तो उन्हें ऐसी भावना होती ही है। लीनता होती है, परन्तु शुभभावनामें यह होता है। पूरी दिशा बदल गयी है। अंतरमें चैतन्य तरफ दिशा हो गयी है, बाहरमें देव- गुरु-शास्त्र तरफ उसकी दृष्टि बदल गयी है। लौकिक पर-से दृष्टि छूटकर देव-गुरु-शास्त्र पर उसकी शुभभावना उस ओर आ गयी है। अंतरमें चैतन्य तरफ दिशा बदल गयी है।
मुमुक्षुः- विचार करते हैं तब ऐसा लगता है कि आप कुछ नयी बात करते हो, अलग ही बात लगती है। हमें ऐसा लगता है कि आपका अनन्त उपकार है।
समाधानः- जो पहचानता है, वह उसे भिन्न करता है। क्षयोपशम ज्ञानमें ऐसी शक्ति है कि वह भिन्न कर ले। उसमें क्या फर्क पडा, उसका विस्तार नहीं कर सकता है। लेकिन उसे (लगता है कि), यह बराबर ही है। यह आदमी अलग ही है, ऐसा कह देता है। अन्दर सब विकल्प आये, उसमें मैं जाननेवाला हूँ, उस जाननेवालेको पहचान ले। बाहर कैसे पहचान लेता है। वैसे अंतर तरफ दृष्टि करके तू तेरे ज्ञायक स्वभावको उस लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचान ले। ज्ञायकको पहचान ले। ज्ञानमें ऐसी पहचाननेकी शक्ति है। बाहर रूपीको पहचाने तो अरूपी स्वयं ही है, स्वयंको क्यों नहीं पहचाने?
जैसे कोई परिचयमें आये मनुष्यको कितने समय बाद देखे तो भी उसे पहचान लेता है। उसमें थोडा बदलाव आया हो तो अमुक जातके लक्षण पर-से ज्ञान उसे पकड लेता है कि यह वही मनुष्य है। किस लक्षण-से पहचाना वह कह नहीं सकता. उसकी मुद्रा परसे मैं पहचानता हूँ। उसके मुद्रामें क्या फर्क पडा? वह तो सब मनुष्यकी मुद्रामें थोडा-थोडा, बारीक-बारीक कुछ न कुछ फर्क तो होता ही है। लेकिन वह ग्रहण कर लेता है।