७८ आयी है। क्योंकि उसका स्वयंने परिचय नहीं किया है। सुना तो उसे ऊपर-ऊपर- से चली गयी है। उसकी जो अपूर्वता लगनी चाहिये वह नहीं लगी। आत्मा कोई अपूर्व है। उसमें कोई अपूर्वता भरी है और वह कोई अपूर्व वस्तु है। जगतकी आश्चर्यभूत अपूर्व वस्तु हो तो आत्मा है। और आत्माकी दृष्टि करनी, आत्माकी पहचान करनी, आत्माका ज्ञान अंतरमें-से करना वह कोई अपूर्व है।
शुभभावमें, विभाव भावमें एकत्वबुद्धि कर रहा है, उसीका अभ्यास किया है। उसीका परिचय किया है। परन्तु जो आत्माकी अपूर्वता लगनी चाहिये (वह नहीं लगी)। उससे आत्मा भिन्न है। सब विकल्पों-से आत्मा भिन्न निर्विकल्प तत्त्व है। उसे उसने न्यारा ग्रहण नहीं किया है। अंतरमें न्यारा ग्रहण करे तो उसकी अपूर्वता उसके अनुभवमें आये बिना नहीं रहती। आत्मा कोई अपूर्व है। उसके स्वरूपमें स्थिर हो जाय तो वह अपूर्व वस्तु प्रगट होती है। परन्तु वह स्थिर कब हो? स्वयंको यथार्थ पहचान करे, उसकी यथार्थ प्रतीति हो तो उसमें स्थिर होता है और तो उसमें-से उसे अपूर्वता प्रगट होती है।
बाहरका सब ग्रहण किया है, परन्तु अंतर चैतन्यका स्वभाव ग्रहण नहीं किया है। उसे ग्रहण करना। अंतरका वह कोई अलग पुरुषार्थ करे। उसने बाहर-से सब प्रयत्न किया है। बाहर-से अशुभमें-से शुभमें आया, परन्तु शुभ-से भी भिन्न मैं एक चैतन्य न्यारा तत्त्व है, उसे ख्यालमें नहीं लिया। उसे न्यारा ख्यालमें तो उसमें-से अपूर्वता प्रगट हो ऐसा है। उसमें शान्ति, उसमें आनन्द, सब उसमें है।
बाह्य क्रिया सब छूट जाय तो अंतरमें क्या होगा? इस प्रकार अनन्त काल-से प्रवृत्तिके अलावा अन्दर निवृत्तस्वरूप आत्मा है, उस निवृत्तमें सब भरा है। ऐसी उसे अपूर्वता नहीं लगती है। यह छूट जायेगा तो अंतरमें शून्यता (हो जायगी)। शून्यता नहीं है, अपितु अंतरमें भरचक भरा है, वह उसे प्रगट होता है।
मुनि किसके आश्रय-से मुनिपना पालेंगे? मुनिको महाव्रतका आश्रय (नहीं है)। महाव्रत तो बीचमें आते हैं, उन्हें आश्रय तो आत्माका है। आत्मा जो अपूर्व वस्तु है, उसमें ही उन्हें शरण लगता है, उसका ही उन्हें आश्रय है। विकल्प छूटने-से वह निष्क्रिय नहीं हो जाता। परन्तु अंतरमें-से उसकी स्वरूप परिणति प्रगट होती है और स्वरूपमें जो भरा है, वह उसे प्रगट होता है।
ये सब छूट जाने-से उसमें क्या होगा? ऐसी उसे अंतरमें-से अपूर्व प्रतीति नहीं होती है। अंतरमें सब भरा है। ज्ञानस्वरूप आत्मा, ज्ञानमात्र आत्मा उसमें ही सब भरा है। और उसे भिन्न ग्रहण करने-से उसमें-से प्रगट होता है। कर्ताबुद्धिका रस, बाह्य प्रवृत्तिका रस, अंतरमें-से उसे छूटता नहीं है, कहीं न कहीं मीठास रह जाती है। परन्तु उन सब-से न्यारा कोई कर्ता-क्रिया-कर्मका रस नहीं, कोई प्रवृत्तिका रस नहीं,