९२ होता है। ज्ञायककी पर्याय प्रगट होती है। ज्ञान-ज्ञायकमें परिणति प्रगट होती है। ये कर्ता- क्रिया-कर्म आत्मामें होते हैं, अपने-से अभिन्न होते हैं। परद्रव्यका कर्ता-कर्म जडका तो होता नहीं। विभावका अज्ञान अवस्थामें (होता है)। फिर अस्थिर परिणति रहती है तो उसको कर्ताबुद्धि, स्वामीत्वबुद्धि नहीं है। अस्थिर परिणतिरूप है, वह परिणति होती है। परन्तु वह मेरा स्वभाव है और मेरा कार्य है, ऐसा वह मानता नहीं। पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है, अपना स्वभाव वह नहीं है।
ऐसे कर्ता-क्रिया-कर्म आत्मा-से भिन्न है। आत्माका स्वभावका कर्ता-क्रिया-कर्म स्वभावमें होता है। कर्ता-क्रिया-कर्मका भेद दृष्टिमें नहीं होता है। वह ज्ञानमें जानता है। तो भी अपनी परिणति, क्रिया, पर्याय शुद्धात्मा तरफ शुद्धपर्याय प्रगट होती है, उसकी शुद्ध परिणति होती है, वह अपना कर्ता-क्रिया-कर्म है, वह विभावका है। जडका तो आत्मा कर ही नहीं सकता। विभावका अज्ञान अवस्थामें कर्ता कहनेमें आता है। ज्ञान अवस्थामें स्वामीत्वबुद्धि टूट गयी। विभावका मैं कर्ता नहीं हूँ। तो भी अस्थिर परिणति होती है उसको जानता है। जबतक पूर्ण ज्ञायककी धारा नहीं हुयी, केवलज्ञान नहीं हुआ तबतक अल्प अस्थिर परिणति रहती है।