Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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धर्म-क्षमा, आर्जव, मार्दव सब मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणमते हैं। मुमुक्षु जिज्ञासुकी भूमिकामें वह पात्रतारूप होते हैं। पात्रतामें ऐसा आता ही है। मुमुक्षुकी भूमिकामें शुद्धात्माका ध्येय रखे और शुभभाव बीचमें आता ही है। ऐसा पात्रतामें होता है। पात्रता विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान। पात्रता होने-से सब हो सकता है।

ज्ञायक स्वभाव मुझे कैसे प्रगट होवे ऐसा ध्येय रहता है। और शुभभाव बीचमें आता है तो सब पात्रतामें आता है। तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र अनन्तानुबंधी तीव्र रसरूप होता ही नहीं। मन्द हो जाता है। जिसकी रुचि आत्मा तरफ जाती है, उसको सब मन्द हो जाता है। उसको देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शुद्धात्माका ध्येय, क्षमा, आर्जव, मार्दव सब उसकी भूमिकामें आता ही है। सब आता है। मुनि तो चारित्रदशामें छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। उनकी आराधना तो बहुत प्रबल है। सम्यग्दृष्टिको भी होता है और पात्रतामें भी होता है।

... अशुभमें जाना ऐसा अर्थ नहीं है। शास्त्रमें आता है कि हम तो तीसरी भूमिकामें जानेको कहते हैं। इसलिये अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। शुभभाव पुण्यबन्धका कारण है। तीसरी शुद्धात्माकी भूमिकाको प्रगट करो, ऐसा कहना है। इसलिये बीचमें शुभभाव आता है।

मुमुक्षुः- तीसरी भूमिका?

समाधानः- तीसरी भूमिका-अमृतकुंभ भूमिका-शुद्धात्माकी भूमिका। वह प्रगट हो, मोक्षमार्ग तो वही है। तो भी शुभभाव बीचमें आता है। श्रद्धा ऐसी रहती है कि पुण्यबन्धका कारण है तो भी शुभभाव बीचमें आता है। तुझे ऊपर-ऊपर चढनेको कहते हैं, शुद्धात्माकी भूमिकामें-अमृतकुंभ भूमिकामें। इसलिये अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं, परन्तु शुभ बीचमें आता है। तो तीसरी भूमिकाका ध्येय करो, दृष्टि करो, ज्ञान, आचरण सब उसका करो। बीचमें शुभभाव आता है। मार्दव धर्म तो पात्रतामें भी होता है। मुनिको तो शुभस्वरूप परिणमन क्षमा, आर्जव, मार्दव, शुद्धपर्यायरूप और शुभभाव मुनिको भी होता है, पंच महाव्रतमें।

मुमुक्षुः- आत्मामें कर्ता-कर्मका अभिन्नपना कैसा है? और कर्ता-कर्मका भिन्नपना कैसा है?

समाधानः- वह विभावका, परद्रव्यका कर्ता नहीं है। परद्रव्य जड द्रव्यको कर नहीं सकता। जडका कार्य, क्रिया नहीं कर सकता है। जडका कर्म आत्मा नहीं कर सकता है। विभावका भी अज्ञान अवस्थामें कर्ता कहनेमें आता है। राग उसके पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। इसलिये अज्ञान अवस्थामें कर्ता है। और ज्ञान स्वभावमें ज्ञानस्ववभाका कर्ता है। ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है। ज्ञानरूपी ज्ञानकी क्रिया होती है, ज्ञानका कर्म