किया तो भिन्नता अनुसार स्वयं भिन्न कार्य करता नहीं है। मात्र बुद्धिमें निर्णय करता है। परन्तु भिन्नताका अभ्यास नहीं करता है। बारंबार उसे टिकाता नहीं है। और वह बुद्धिपूर्वक विकल्प-से करने जाय तो उपाधि और आकुलता हो जाय कि इसे कैसे टिकाना? एक जातका प्रयास वह नहीं कर सकता है। परन्तु वह सहजपने कैसे हो, उसकी बारंबार लगनी, अभ्यास बारंबार टिकाये रखे।
निर्णय किया उसका कार्य लाता नहीं है। मैं भिन्न हूँ, ऐसा नक्की किया लेकिन भिन्नतारूप कार्य नहीं लाता है। जो-जो परिणतिका उदय आता है, उसी वक्त मैं भिन्न हूँ, भिन्न रहनेका, उस प्रकार-से अपनी प्रतीतिको टिकानेका वह उद्यम नहीं करता है और कार्य लाता नहीं। इसलिये आगे नहीं बढता है। निर्णय करके छोड देता है, निर्णय करके छोड देता है।
मुमुक्षुः- छूट जाता है, माताजी!
समाधानः- भले छूट जाता है। उतना प्रयास उसका आगे चलता नहीं है, छूट जाता है। छूट जाता है, बारंबार उसे टिकता नहीं है। परन्तु विकल्परूप-से, अभ्यास- रूप-से भी टिकाता नहीं है। विकल्परूप-से या अभ्यासरूप-से टिकाये तो उसे आगे जाकर सहज होनेका अवकाश है। परन्तु वह उसे टिकता नहीं है, छूट जाता है। इसलिये जो परिणति है उस तरफ दौडा जाता है। विकल्पमें, भावमें उसे रुचिमें लगे कि मैं भिन्न हूँ। परन्तु भिन्नका भिन्नरूप कार्य तो होता नहीं। बुद्धिमें रहता है और कार्य होता नहीं।
मुमुक्षुः- रागमें एकता तो तुरन्त दिखती है कि एकता यहाँ हो गयी।
समाधानः- हाँ, एकता हो जाती है। भिन्न भिन्नरूप कार्यरूप होता नहीं। इसलिये वह कार्य नहीं होता है। वह दूर जाय तो उसे भिन्नतारूप कार्य लानेका है। भिन्नताकी परिणति करके कार्य लानेका है, वह कर नहीं सकता है। बारंबार ऐसे ही खडा रहता है। उसमें उसे महेनत पडती है, इसलिये वह करता नहीं।
मुमुक्षुः- उसमें महेनत किस प्रकारकी?
समाधानः- उसे सहज (नहीं होता)। वह सहज है इसलिये वहाँ दौडा जाता है, अनादिका अभ्यास है वह सहज हो जाता है। इसमें उसे दिशा पलटनी है वह छूट जाता है। बुद्धिपूर्वक करके छूट जाता है, बारंबार छूट जाता है। इसलिये उतनी रुचिकी मन्दता है, पुरुषार्थकी मन्दता है। इसलिये वह छूट जाता है।
उतनी लगन लगी हो कि बस, यह चैतन्य ही (चाहिये), चैतन्य बिनाकी परिणति मुझे चाहिये ही नहीं। मुझे चैतन्यका ही अस्तित्व चाहिये। यह अस्तित्व मुझे नहीं चाहिये। उतनी अन्दर-से लगन, महिमा और रुचिकी उग्रता हो तो उसका पुरुषार्थ टिका रहता