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अपनेआप शास्त्र पढे और जो गुरुदेव स्वयं कहे उसकी जो असर हो, वह असर अलग ही होती है। ग्रहण करके स्वयं पढे तो उसे दृष्टिमें कुछ समझमें आये, परन्तु पहले तो गुरुदेव समक्ष, जिन्हें साक्षात चैतन्य प्रगट हुआ है, उनकी वाणी ही चैतन्यको प्रगट होनेमें निमित्त होती है, ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है। जीव स्वतंत्र होने पर भी स्वतंत्र पुरुषार्थ करता है तो भी उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। गुरुके साथ और देवके साथ।
उनका आत्मा किस प्रकार कहता है? वह स्वयं आत्मा है न, इसलिये उसे एकदम ग्रहण होता है। टेपमें भी .. सबको उस जातके संस्कार है न। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका सम्बन्ध हो जाता है। टेप अलग होती है, सब अलग होता है।
स्वयंको चैतन्यको ग्रहण करना है, परन्तु गुरुकी वाणी चैतन्य बताये कि तू आत्मा है। बारंबार कहे। वह धोबीका वस्त्र गलती-से ओढकर सोया है। उसे बारंबार गुरु कहते हैं, ये वस्त्र तेरा नहीं है, तेरा नहीं है। तब उसे मालूम पडता है कि ये मेरा नहीं है। वैसे गुरुदेवने बारंबार उपदेशमें कहा कि तू आत्मा भिन्न है। ये शरीर भिन्न है, ये विभाव तेरा स्वभाव नहीं है, सब भिन्न है। भिन्न है-भिन्न है। कितने साल वाणी बरसायी। अन्दर दृढ संस्कार, गुरुकी वाणी-से दृढ संस्कार पडते हैं।
बाकी अनादि-से क्षयोपशम ज्ञान ऐसा है कि बाहरका सब ग्रहण करता है, परन्तु अपनेको ग्रहण करनेमें गुरुकी वाणी मिले तो उपादान और निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। क्षयोपशम ज्ञान बाहरका सब ग्रहण करे। एक जातिके लोग हो तो खुदने थोडा- सा देखा हो तो उस मनुष्यको पहचानता है। उसे स्थूल उपयोग कहते हैं, उसमें सूक्ष्मता- से भेद कर सकता है।
बहुत सालके बाद आदमीको देखे तो ऐसा कहे, यह वही आदमी है। उसमें क्या फर्क पडा? उस वह कह नहीं सकता कि उसके आँखें अलग है, या उसका चहेरा अलग है, यह अलग है, ऐसा भेद तो करता है, परन्तु वह बोल नहीं सकता। थोडा- थोडा फेरफार हो तो उसका ज्ञान क्षयोपशम ज्ञान चारों ओर पहुँच सकता है। यह फलाना आदमी, फलाना आदमी। ऐसे दूर-से भी पहचान सकता है। क्षयोपशम ज्ञान ऐसे भेद करता है। ऐसे स्थूल कहनेमें आता है, परन्तु सूक्ष्म भेद बाहरमें करता है।
अंतरमें स्वयंको पहचानना हो, वह भेद ज्ञान ही करता है। परन्तु वह ज्ञान अपनी ओर मुडकर स्वयंको पकडनेमें (सक्षम नहीं होता)। अनादिका बाहरका अभ्यास हो गया है, स्वयंको पकड नहीं सकता। पुरुषार्थ करे तो पकडे। गुरुकी वाणी आवे। उस वाणीके साथ उपादानका (सम्बन्ध है)। तू भिन्न है।
ज्ञान ज्ञानको ग्रहण करे, ज्ञायकको ग्रहण करे ऐसा उसका स्वभाव है। परन्तु वह