११४ जाननेवाला ही हूँ, जो जाननेवालेका अस्तित्व है वही मैं हूँ। यह जाना, वह जाना ऐसा पर्यायमात्र जाना वह नहीं, परन्तु जाननेवालेका पूरा अस्तित्व है वही मैं हूँ। परन्तु जाननेवालेका पूरा अस्तित्व है, वही मैं हूँ। ऐसा उसे अन्दरमें ऊतरकर उसकी परिणति अन्दरसे अपने अस्तित्वमें-से ग्रहण होनी चाहिये।
उसे विकल्प साथमें आते हैं, इसलिये बार-बार विकल्प छूट जाता है और दूसरा विकल्प आता है। इसलिये उसका अनादिका अभ्यास ऐसे ही चालू रहता है। परन्तु बारंबार (भेदज्ञानको) दृढ करता रहे तो सहज होता है।
मुमुक्षुः- शुरूआतमें दृढ यानी इसप्रकार विकल्पपूर्वक दृढ करता रहे?
समाधानः- विकल्प तो साथमें आये बिना नहीं रहता है। परन्तु विकल्पके पीछे जो ज्ञान काम करता है, विकल्पके पीछे जो प्रतीत काम करती है, उस प्रतीत और ज्ञानको दृढ करते रहना। विकल्प तो साथमें आता ही रहेगा। जबतक विकल्पकी स्थितिमें है इसलिये विकल्प साथमें आता है।
मुमुक्षुः- विकल्पके पीछे जो ज्ञान और प्रतीति है, उसे दृढ करते रहना?
समाधानः- उसे दृढ करना। चैतन्यका आश्रय-द्रव्यका आश्रय-अस्तित्व है वही मैं हूँ। विकल्पका अस्तित्व वह मैं नहीं, परन्तु ज्ञायकका अस्तित्व है वह मैं हूँ।
मुमुक्षुः- ज्ञान और प्रतीतिमें दृढता तो इसप्रकार बाहरमें क्षयोपशम ज्ञानमें अनेक लोग हो और स्पष्ट ख्यालमें आये, ऐसा अपने आत्माका ख्याल आ जाता है?
समाधानः- हाँ, अपने आत्माका ख्याल आता है कि मैं आत्मा हूँ। वह तो रूपी है। ये अरूपी है, अरूपी है लेकिन खुद है। वह तो दूर है, वह मनुष्य दूर है। ये तो स्वयं और स्वयं समीप है। फिर भी पहचान नहीं सकता है।
मुमुक्षुः- आप कहते हो ... वह अमूर्तिक है। इसलिये हमें तो इस मूर्तिक पदाथामें ऐसा लगता है कि बराबर, क्षयोपशम ज्ञान-से ख्याल आ जाता है, इसका कैसे ख्याल आये?
समाधानः- अरूपीमें स्वयं दृढता, एकाग्रता करे, अपना अस्तित्व ग्रहण करे उसमें बारंबार दृढता करे तो स्वयं अपनेको ग्रहण हुए बिना नहीं रहता। उसे ऐसा हो गया है, गुरुदेव कहते थे न, नौ-दस लोग हो तो ये है, ये है, ऐसा करके स्वयंको गिनतीमें भूल जाता है। वैसे यह सब, यह सब है, परन्तु जाननेवाला कौन है? यह सब है (जानता है)। वह स्वयंको भूल जाता है। मैं कौन हूँ? ऐसा स्वयंको दृढ करना चाहिये कि यह मैं हूँ।
मुमुक्षुः- आप कहते हो, अंतर निवृत्ति (कहते हो), बाह्य-से तो निवृत्ति ली, परन्तु अंतर निवृत्ति लेकर ऐसा कर, अंतर निवृत्ति माने क्या?