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समाधानः- अंतर निवृत्ति माने अंतरमें अनेक जातकी विकल्पकी जालमें रुकता हो, अनेक जातके विकल्पमें रुकता हो, उसमें-से स्वयं छूटकर बारंबार चैतन्य तरफ जाना, वह अंतर निवृत्ति है। अनेक जातकी जालमें रुकता हो, (उसमेंसे बाहर निकलकर) चैतन्य तरफका विचार करना, चैतन्य तरफ यह मैं हूँ, ऐसे अपनेको ग्रहण करना। विकल्पकी जालकी प्रवृत्ति आडे वह बार-बार आती है, इसलिये वह उसे गौण हो जाता है। इसलिये विकल्पकी जालकी प्रवृत्ति कम करके अपनी ओरका अभ्यास बढाये, वह अंतर निवृत्ति है।
वास्तविक निवृत्ति तो स्वयं ज्ञायकका ज्ञायकरूप परिणमन हो जाय तो वास्तविक निवृत्ति है। परन्तु अन्य विकल्प कम करके चैतन्य तरफका अभ्यास बढाये तो भी अंतर निवृत्ति है।
मुमुक्षुः- आपके पास-से यह मार्गदर्शन बहुत सुन्दर मिलता है कि अनुभव पूर्व किस प्रकार आगे बढना, यह बहुत सुन्दर रीत-से आपसे ख्यालमें आता है।
मुमुक्षुः- न्याय उतना गंभीर और दृष्टान्त इतना सरल। पहचानमें आता है, और कह नहीं सकता कि कैसे पहचाना? सब एक सरीखे दिखते हैं फिर भी कैसे अलग करता है?
समाधानः- उसके लक्षण-से पहचाना ऐसा कहे। परन्तु क्या लक्षण, वह कह नहीं सकता। किसीकी आवाज पर-से (पहचान करता है)। सबके आवाज बारीक हो तो आवाज पर-से कहता है कि यह फलाना मनुष्य है। आवाजमें क्या फर्क पडा उसे कह नहीं सकता है। स्वयं ज्ञानमें ग्रहण कर लेता है कि इसकी आवाज यह है, इसलिये यह मनुष्य है। इस प्रकार स्वयं ग्रहण कर लेता है। ऐसे लक्षण-से रूपीको पहचान लेता है।
परन्तु अपने ज्ञानलक्षण-से ज्ञायकको पहचाननेमें मुश्किल पडती है। उसमें बिना विकल्प, बिना तर्क पहचान लेता है, निःशंकपने पहचान लेता है। बारंबार चैतन्यका अभ्यास करे, उसमें उलझनमें न आ जाय, उसमें आकुलता न हो, परन्तु भावना रखे। बहुत आकुलता करे कि क्यों होता नहीं? तो उसे बहुत उलझन हो तो आगे नहीं बढ सकता। परन्तु अमुक प्रकारकी भावना-से आगे बढता है। उलझनमें आ जाय तो दिक्कत हो जाय।
मुमुक्षुः- उलझनमें न आ जाय। मार्ग निकालता जाय।
समाधानः- मार्ग निकालता जाय। बाहरकी तकलीफमें-से जैसे मार्ग निकालता है, वैसे अंतरमें स्वयं रास्ता निकालता है। कोई विकल्पकी जालमें नहीं उलझकर स्वयं रास्ता निकालकर चैतन्यका अभ्यास कैसे बढे? इस तरह स्वयं रास्ता निकालता है।