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नहीं था। अंतरकी ज्ञायककी उग्रता-से कहती थी। अपनी भावना, पुरुषार्थके जोरमें कहती थी।
मुमुक्षुः- अनुभव पूर्वका विश्वास भी गजबका!
समाधानः- इस पुरुषार्थका जोर ऐसा है कि आखिर तक पहुँचकर ही छूटकारा करेगा।
मुमुक्षुः- .. पढा था, उसमें आया था कि भरत चक्रवर्ती सुबह उठकर रोज पहले अनुभव करते थे, निर्विकल्प दशामें एक बार आते थे। उसके बाद ही प्रातःकालमें आगे बढते थे।
समाधानः- ऐसी ध्यानधारा स्वयं करते हैं, इसलिये निर्विकल्प दशा आती है। ऐसा। उस जातकी अपनी वर्तमान परिणतिकी उग्रता करते हैं तो निर्विकल्प दशा आती है। भूमिका सम्यग्दर्शनमें पलटती है वह उसकी वर्तमान चारित्र लीनताकी दशाकी उग्रता वह वर्तमानमें करता है। स्वानुभूति कैसे जल्दी करुँ, उसके बजाय उसकी वर्तमान विरक्त दशा बढ जाती है कि वह गृहस्थाश्रममें भी रह नहीं सकते। ऐसी उसकी लीनता उतनी बढ जाती है कि वर्तमान लीनता बढने-से स्वानुभूति त्वरा-से होती है। इसलिये छठवें- सातवें गुणस्थानें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें उनकी दशा त्वरा-से होती है। उनकी लीनता, वर्तमान लीनता उतनी बढ जाती है।
वर्तमान चारित्रकी दशा, विरक्तिकी दशा उनकी सविकल्पतामें लीनताका जोर उतना बढ जाता है कि निर्विकल्प दशा उन्हें शीघ्रता-से आती है। निर्विकल्प दशा, उनकी वर्तमान चारित्रदशा, उनकी वर्तमान ध्यानकी उग्रता चारित्रका वह कार्य है। अपनी चारित्रदशाकी उग्रताके कारण वह शीघ्रता-से होती है। अंतरकी उग्रता, अंतरमें वर्तमानकी जो उग्रता होती है उससे उसका कार्य होता है। वीतराग दशा उन्हें छठवें-सातवें गुणस्थानमें बढती जाती है वर्तमानमें, अतः उसमें श्रेणी लगाते हैं। श्रेणी लगाऊँ ऐसा उन्हें नहीं होता। उन्हें वीतराग दशाकी उग्रता होती जाती है। इसलिये श्रेणी चढते हैं। उनकी स्थिति ऐसी हो जाती है कि अंतरमें गये सो गये, फिर बाहर ही नहीं आते हैं। इतनी उग्रता हो जाती है इसलिये श्रेणी चढते हैं। उतनी वीतराग दशा बढ जाती है।
वैसे गृहस्थाश्रममें उनकी वर्तमान ज्ञाताधाराकी उग्रता, उनकी लीनता, दशाकी विरक्तिमें उतनी गति होती है, इसलिये स्वानुभूतिकी दशा उन्हें होती है। उनकी लीनताके कारण वह कार्य आता है। स्वरूपाचरण चारित्र चतुर्थ गुणस्थानमें होता है। परन्तु उसकी भी तारतम्यता होती है। किसीको उग्र होती है। भूमिका पलटे उसमें तो लीनताकी उग्रता अधिक बढ जाती है।