१४६ बात है। पुरुषार्थ और प्रतीतमें थोडा अंतर रह जाता है। जिसे प्रतीति हो-सम्यग्दर्शन हो और तुरन्त चारित्र हो जाय ऐसा नहीं बनता। परन्तु प्रतीति हो उसका अमु कार्य तो आता ही है। जिसकी यथार्थ प्रतीति हुयी, उसे अमुक भेदज्ञानकी धारा निर्विकल्प दशा तो प्रगट हुयी है, परन्तु उसकी लीनतामें देर लगती है।
मुमुक्षुः- सन्मुख जो कहनेमें आता है कि यह सन्मुख हुआ है। सन्मुखता और प्रतीतमें क्या फर्क है? इसे प्रतीति है और इस सन्मुखता है।
समाधानः- प्रतीत तो यथार्थ प्रतीति। सहज भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो गयी वह प्रतीति। स्वसन्मुख हुआ उसमें अमुक जातकी रुचि है। उसे अभी यथार्थ प्रतीति नहीं हुयी है।
मुमुक्षुः- किसके सन्मुख हुआ है, उसे मालूम है?
समाधानः- आत्माके सन्मुख हुआ है।
मुमुक्षुः- सन्मुख माने क्या?
समाधानः- सन्मुख अर्थात आत्मा तरफ उसकी परिणति मुडती है कि यही मुझे चाहिए। समीप आ गया है, विकल्प, विभाव तो उसे एकदम नहीं रुचता है। मुझे सहज ज्ञायकता रुचती है, अंतरमें ज्ञायक तरफ उसकी बार-बार गति जाती है। अभी यथार्थ नहीं हुआ है, वह सन्मुखता है।
मुमुक्षुः- यथार्थ नहीं हुआ है, वह सन्मुखता है। सन्मुखता अर्थात उसे ख्याल है कि यह, इसके सन्मुख हूँ, यह, उसे ख्यालमें आया है?
समाधानः- हाँ, उसे अमुक प्रकार-से आया है। वास्तविक तो ऐसा ही है कि जब यथार्थ हुआ तब हुआ। उसके पहलेका है वह सब तो योग्यतावाला कहा जाता है। फिर उसमें समीप कितना, दूर कितना वह स्वयं समझ लेना। वहाँ तक तो उसके दो भाग ही है। यथार्थ जब सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, तभी यथार्थ प्रतीति, तभी सम्यग्दर्शन। उसमें भाग नहीं है।
उसके पूर्वका सब मन्द और तीव्रतावाला ही कहनेमें आता है। वह सब विशेषण, यथार्थ विशेषण सब सम्यग्दर्शनमें लागू पडते हैं। उसके पहले उसकी रुचि और जिज्ञासा उस तरफकी है। वह उसे उस प्रकार-से कारणरूप-से यथार्थ कहनेमें आता है। वह कारणरूप (कहा जाता है)।
मुमुक्षुः- जब ऐसा विचार करते हैं कि बहिनको इतने अल्प समयमें सम्यग्दर्शन हो गया और हम इतने-इतने साल-से महेनत करते हैं तो भी परिणति होती नहीं। पुरुषार्थके प्रकारमें कुछ क्षति होगी?
समाधानः- महेनत की, वह महेनत भी कैसी की, वह समझना पडेगा न। पुरुषार्थकी