Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1725 of 1906

 

ट्रेक-

२६३

१४५

कुछ करनेका नहीं रहता है। स्वयं ज्ञायक हो जाय तो। ज्ञायको होता नहीं है और कर्तृत्वबुद्धि खडी रहती है कि मैं कुछ करुँ, मैं कुछ करुँ, बाहरका करुँ, ऐसा करुँ, वैसा करुँ, ऐसी कर्तृत्वबुद्धिमें वह बाहरका कुछ नहीं कर सकता है। उत्पाद-व्यय- ध्रुव सहज स्वभाव है, उस रूप स्वयं हो जाय तो कुछ करना नहीं रहता है।

अपनी रुचि नहीं है उस रूप होनेकी, स्वयं निष्कर्म निवृत्तिरूप परिणति करनी और स्वभावरूप परिणमित हो जाना, ऐसी रुचिकी क्षति है। स्वयंको कुछ बाहरकी प्रवृत्ति रुचती है। निवृत्त स्वरूप आत्मा है उसमें ही शान्ति और उसमें ही आनन्द भरा है। उस जातकी स्वयंकी रुचि नहीं है इसलिये बाहरका कुछ करना, ऐसी उसकी परिणति चलती रहती है।

मुमुक्षुः- रुचि नहीं है?

समाधानः- वास्तविक रुचि वैसी हो, अंतरमें वैसी उग्र रुचि हो कि मैं निवृत्त स्वरूप ही हूँ और निवृत्तरूप परिणम जाऊँ, ऐसी रुचिकी यदि उग्रता हो तो पुरुषार्थ हुए बिना रहे नहीं। जहाँ चैन न पडे, जिस विकल्प भावमें स्वयं एक क्षण मात्र भी टिक न सके, तो-तो वह छूट ही जाता है। स्वयं टिक सकता है, वह ऐसा सूचित करता है उसके पुरुषार्थकी मन्दता है। वहाँ वह टिका है।

मुमुक्षुः- रुचिकी जातमें क्षति है या मात्रामें क्षति है?

समाधानः- वह स्वयं समझ लेना कि जातमें क्षति है या मात्रामें। अपना हृदय समझ लेता है कि यथार्थ चैतन्य स्वरूप है वह एक ही मुझे चाहिये, फिर भी मैं बाहर जाता हूँ, मेरी रुचिकी मन्दता है। रुचिकी जातमें क्षति है। गुरुदेवने इतना मार्ग बताया, फिर जातमें क्षति रहे तो वह तो स्वयंकी ही क्षति है। जातमें क्षति नहीं रहती। गुरुदेवने ऐसा उपदेश दिया और यथार्थ मुमुक्षु बनकर सुना हो तो उसकी जातिमें क्षति रहे ऐसा कैसे बने? परन्तु मात्रामें उसकी दृढतामें क्षति है। उसके पुरुषार्थकी मन्दता, उसकी रुचिकी मन्दता। वह बाहरमें टिकता है।

मुमुक्षुः- दूसरेमें तो कहें कि उसकी श्रद्धा अलग है। दूसरी श्रद्धा देखते हुए, यह वस्तु सुहाती है या नहीं? क्योंकि श्रद्धाका कार्य तो एक ही प्रकारका है, उसमें कोई भंग-भेद नहीं पडते। तो यह रुचता है, ऐसा हम कहते हैं। दूसरा रुचता नहीं है, यह हकीकत है।

समाधानः- रुचिका कार्य आता नहीं है। रुचता है वह, और कार्य करे दूसरा। कार्य बाहरका होता है। अंतरमें यदि आत्माकी रुचि हो तो उस जातका कार्य नहीं होता है। उतनी रुचिकी मन्दता है और पुरुषार्थकी मन्दता है। जिसे यथार्थ प्रतीति हो, अन्दर दृढता हो उसे पुरुषार्थकी गति उस ओर मुडती है। फिर कितने मुडे वह दूसरी