Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

१४४ ऐसा नहीं है। वह तो स्वभावमें लीन हो, स्वभावको पहचाने तो उसमें सहज प्रगट होता है। वह तो अनुपम है, उसे किसीकी उपमा लागू नहीं पडती। कोई विकल्पाश्रित भावोंकी उपमा उसे लागू नहीं पडती। विकल्पमें जो आनन्द आता है वह आकुलता मिश्रित आनन्द है। उस आनन्दमें आकुलता रही है और वह विभाव भाव है। चैतन्यका आनन्द निर्विकल्प है, आकुलता रहित है, स्वभावमें-से सहज प्रगट होता आनन्द है। उसे कहीं-से लाना नहीं पडता, वह तो सहज प्रगट होता है। उसे किसीकी उपमा लागू नहीं पडती। वह तो अनुपम है। आत्मामें जो स्वभाव भरा है, उसमें परिणति होने-से, लीनता होने-से प्रगट होता है। उसे किसीकी उपमा नहीं है। उसे कोई दृष्टान्त लागू नहीं पडता।

मुमुक्षुः- कथंचित व्यक्तव्य है।

समाधानः- समझ लेना। जगतके कोई विभावभावमें वह आनन्द नहीं है। जगत- से भिन्न न्यारा ही है। चैतन्य अनुपम तत्त्व, उसका आनन्द अनुपम। उसके सब भाव अनुपम। वह अलग दुनियाका आनन्द है ऐसा समझ लेना। उसे कोई दृष्टान्त लागू नहीं पडता। जो सुख-सुख इच्छता है, वह सुख अपनेमें भरा है, बाहर-से नहीं आता है। वह कोई अपूर्व है, उसे जगतकी कोई उपमा लागू नहीं पडती, वह कोई अनुपम है।

मुमुक्षुः- हम कुछ दूसरी इच्छा रखते हैं। ऐसी सब बातें.. और एक परमपारिणामिकभाव। उसका विचार करते हैं तब थँभ जाते हैं। इसमें करना क्या है? स्वभाव ... तू है, स्वभाव है। तो फिर शान्ति क्यों नहीं होती है? स्वभावमें शान्ति भरी है, स्वभावका विचार करने पर दूसरा कोई विकल्प आने नहीं देता। स्वभाव। वाच्यार्थका विचार ... उसमें कुछ करना नहीं है। हमारी मति कहाँ उलझती है, यह समझमें आया है। ...

समाधानः- कहीं न कहीं स्वयं ही रुक जाता है।

मुमुक्षुः- वह तो हकीकत है।

समाधानः- उत्पाद-व्यय-ध्रुवको यथार्थ समझे तो विकल्प छूटे। करनेका कुछ नहीं रहता। वास्तविक रूप-से कर्ताबुद्धि छोड दे, ज्ञायक हो जाय तो करना कुछ नहीं है। मैं परपदार्थका कर सकता हूँ अथवा विकल्पका कर्ता मैं हूँ अथवा मैं रागका कर्ता हूँ, वह सब छूट जाय। वास्तविक रूप-से यदि ज्ञायक हो जाय, ज्ञायककी परिणति हो तो उसमें बाहरका कुछ करना नहीं रहता है। वह सहज ज्ञाता बन जाय, सहज जो उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूप वस्तु है, उस रूप स्वयं परिणमित हो जाय तो बाहरका कुछ करना नहीं रहता।

स्वयं जिस स्वरूप है, उसमें दृष्टिको थँभाकर उसका ज्ञान और लीनता करे तो