Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

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उसका स्वभाव जो है एक समयमेें जाने, ज्ञान दूसरेको जानने नहीं जाता, परन्तु अपनेमें ज्ञानकी परिणति स्व तरफ ही मुड गयी। स्वयं अपनेको जानते हुए पर सहज ही ज्ञात हो जाता है। पूर्ण लोकालोक और स्वयं आत्मा, आत्माके अनन्त गुण-पर्याय और दूसरेके स्वयंको जानते हुए सब ज्ञात हो जाता है। ऐसी सहज परिणति (हो जाती है)। विकल्प नहीं होता कि मैं श्रेणि लगाऊँ, केवलज्ञान नहीं हो रहा है। मुझे वीतराग दशा हो, मेरे स्वरूपमें लीनता करुँ, मुझे बाहर कहीं नहीं जाना है। विभाव परिणति सुहाती नहीं। इसलिये स्वरूपमें ऐसी लीनता हो गयी। आत्माके अलावा मुझे कहीं चैन नहीं है। आत्मामें उतनी लीनता हो गयी कि फिर बाहर ही नहीं आते। अन्दर गये सो गये, स्वरूपमें समाये सो समाये, बाहर ही नहीं आये। ऐसी परिणति होती है इसलिये वीतराग दशा और केवलज्ञानकी दशा प्रगट हो जाती है।

मुमुक्षुः- कोई भी दशाकी इच्छा नहीं करी, आत्मामें ही लीनता की।

समाधानः- कोई दशाकी इच्छा नहीं है। एक आत्माकी लीनता, आत्म स्वरूपमें स्थिर हो जाऊँ, स्वरूपके अलावा कहीं नहीं जाना है। विभावमें कहीं नहीं जाना है। एक स्वरूपमें ही रहूँ। परिणति ऐसी जम गयी कि उसमें केवलज्ञान हो गया।

सम्यग्दर्शनमें उसकी प्रतीति इतनी जोरदार है कि इसीमें लीनता करुँ। परन्तु वह लीनता अमुक प्रकार-से टिकती है और थोडा बाहर आते हैं। वह लीनताका जोर बढते-बढते उसकी भूमिका बढती है। और भूमिका बढते-बढते मुनिदशा आकर फिर श्रेणि लगाते हैं।

ज्ञायककी धारा, भेदज्ञानकी धारा सहजपने वर्तती है। उसमें उन्हें स्वरूपमें लीनता निर्विकल्प दशा होती है, ऐसा करते-करते उसकी भूमिका बढ जाती है। स्वरूपकी लीनता बढते-बढते उसकी भूमिका चौथेमें-से पाँचवी हो जाती है। लीनता बढती है इसलिये। उसके अनुकूल जो जातके शुभभाव होते हैं, वह भाव आते हैं। उसमें अमुक व्रतादिके आते हैं। ऐसा करते-करते लीनताकी-स्वरूपमें रहनेकी भूमिका बढती जाती है इसलिये छठवां-सातवां गुणस्थान और मुनिदशा हो जाती है। फिर ऐसी दशा हो जाती है कि अंतमुूर्हर्त-से ज्यादा बाहर टिक नहीं सकते हैैं। इसलिये मुनिदशा आती है। और मुनिदशामें रहते-रहते बाहर ही नहीं जाय ऐसी लीनता हो जाती है इसलिये श्रेणि लगाते हैं।

मुमुक्षुः- चतुर्थ गुणस्थान-से आखिर तक लीनताका एक ही पुरुषार्थ है।

समाधानः- बस, वह लीनताका पुरुषार्थ है। पहले सम्यग्दर्शनकी प्रतीति का बल होता है। उस प्रतीतिके बलपूर्वक लीनताकी परिणति होती है। लीनता अर्थात चारित्रकी दशा प्रगट होती है। सम्यग्दर्शनपूर्वक स्वरूपका आलम्बन है, प्रतीतमें स्वरूपका-द्रव्यका