मुमुक्षुः- अत्यंत आश्चर्य हो ऐसी बात है। हमने तो आपसे सविकल्प दशाका वर्णन सुना तो ऐसा होता है कि अभी तक तो बाहरके राग-द्वेषके परिणाम-से ही माप निकालनेका प्रयत्न करते थे। जबकि ज्ञानीका परिणमन तो पूरा भिन्न है।
समाधानः- जगत-से भिन्न परिणमन है। कोई व्यक्तिके प्रश्न पूछनेके बजाय समुच्चय प्रश्न पूछना। छठवें-सातवें गुणस्थानमें मुनिराज अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें झुलते हैं। बाहर आये तो मुनिराजको सब सन्धि होती है। शास्त्र लिखते हों तो भी सन्धि तो ऐसे ही चलती है। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें भी बहुत फेरफार होते हैं। कौन-सा अंतर्मुहूर्त, कैसा अंतर्मुहूर्त... ज्ञानीकी दशा क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी वर्तती है। ज्ञायकदशाकी परिणति पूरी भिन्न होती है।
मुमुक्षुः- मुनि महाराजको ऐसा विकल्प नहीं होता है कि मैं श्रेणि लगाऊँ। उनकी तीव्रता इतनी बढ गयी है कि सहज ही श्रेणि लगाते हैं।
समाधानः- विकल्प नहीं होता है, मैं श्रेणि लगाऊँ ऐसा विकल्प नहीं होता। उनकी परिणतिकी गति ही ऐसा हो जाती है कि बार-बार स्वरूपमें लीनता (हो जाती है)। अंतरमें लीनताके अलावा बाहर टिक नहीं सकते हैं। ऐसी तो दशा है कि अंतर्मुहूर्तसे ज्यादा तो बाहर नहीं सकते हैं। अंतर्मुहूर्त बाहर जाय उतनेमें अंतरमें परिणति पलट ही जाती है। उससे ज्यादा देर वे बाहर टिक नहीं पाते। परिणति उतनी अपने स्वरूपकी ओर चली गयी है कि अपनेमें इतनी लीन परिणति है कि बाहर टिक नहीं सकते।
ऐसा करते-करते उनकी परिणति इतनी जोरदार स्वरूप ओर जाती है कि उसमें- से उनको श्रेणि लगती है। ऐसा विकल्प नहीं करते हैं कि मैं श्रेणि लगाऊँ। स्वरूपमें इतनी लीनता बढ जाती है, निर्विकल्प दशामें इतनी लीनता हो जाती है कि उसमें- से उन्हें श्रेणि लग जाती है। वह अंतर्मुहूर्तकी दशा है। ऐसी दशा हो जाय कि विकल्प तो निर्विकल्प दशामें बुद्धिपूर्वक हो जाय, परन्तु उन्हें स्वरूप लीनताकी ऐसी जोरदार परिणति हो जाती है कि उसमेंसे श्रेणि लगाकर और वह लीनता ऐसी होती है कि फिर बाहर ही नहीं आते। ऐसी क्षपक श्रेणि लगा दे तो अन्दर लीनता हुई सो हुई, सर्व विभावका क्षय हो जाता है। विभाव परिणतिका क्षय हो जाता है इसलिये कर्मका भी क्षय हो जाता है। और अंतरमें परिणति गई सो गई, फिर बाहर ही नहीं आते। ऐसी लीनता हो जाती है कि अंतर्मुहूर्त भी बाहर आ जाते थे, वे उतना भी बाहर टिक नहीं सकते। अन्दर ऐसी लीनता हो गयी। सादिअनन्त (काल) उसमें-ही टिक गये। उसमें टिक गये, परिणति टिक गयी तो सादिअनन्त आनन्द दशा प्रगट हुई। और ज्ञानकी निर्मलता हो गयी। ज्ञानकी परिणतिमें एक अंतर्मुहूर्तमें जाना जाता था, वह ज्ञान एक समयमें सब जान सके ऐसी परिणति, वीतराग दशा हुई इसलिये ज्ञान भी वैसा निर्मल हो गया।