१९८ साथमें हो जाता है। सिंहके भवमें सब साथमें आ गया। परिणति एकदम नर्म हो गयी, अन्दर पात्रता प्रगट हो गयी, अरे..! ये मैं क्या कर रहा हूँ? ऐसा हो जाता है। अंतर स्वरूप ओर मुड जाता है। सब साथमें हो जाता है। अरे..! ये विभावदशामें मैं कहाँ आ गया? स्वभाव ओर परिणति पलट जाती है। सब साथमें (हो जाता है)।
यथार्थ पलटना कब कहा जाय? कि अन्दर भेदज्ञान हुआ तब। और उस यथार्थ पलटनेके साथ सबका अविनाभावी सम्बन्ध है। उसके पहले उसे पात्रताके अमुक भाव आते हैं, अरे..! ये मैं क्या कर रहा हूँ? ऐसा विकल्प आये। परन्तु यथार्थ प्रकार- से जब छूटता है तब एकसाथ छूट जाता है।
मुमुक्षुः- आपने कहा कि तीखा और उग्र पुरुषार्थ करना पडेगा। उसमें ज्यादा वांचन करना? ज्यादा सत्संग करना? ज्यादा ध्यान करना?
समाधानः- अंतर परिणतिका ज्यादा पुरुषार्थ करना। उसमें जहाँ उसकी रुचि लगे, उसे वांचनमें परिणतिको ज्यादा लाभदायी दिखे तो वांचनमें जुडे, विचारमें ज्यादा लाभ लगे तो उसमें जुडे, उसे सत्संगमें लाभ होता हो तो उसमें जुडे। उसे जहाँ लाभ होता हो वह करे। परन्तु अन्दर पुरुषार्थ, अन्दर ज्ञायककी उग्रता कैसे हो, ज्ञायकधाराकी और मैं कैसे मेरे चैतन्यकी ओर मेरी परिणति दृढ हो, मेरी प्रतीति दृढ हो, मैं चैतन्य ही हूँ, यह मैं नहीं हूँ, उसके पुरुषार्थका ध्येय एक ही है। उस ध्येयके साथ जहाँ-जहाँ उसके परिणामको ठीक पडे, जहाँ उसके परिणाम टिक सके और वृद्धि हो, ऐसे कायामें जुडे।
ध्यानमें उसे ठीक लगे तो ध्यानमें जुडे। परन्तु ध्यानके साथ यथार्थ ज्ञानके विचार, यथार्थ ज्ञानपूर्वक ध्यान होता है। अपने स्वभावको पहचाने विचार करके कि यह ज्ञायक है वही मैं हूँ। फिर उसमें एकाग्र होनेका प्रयत्न करे। वह एकाग्रता उसका ध्यान है। उसमें ध्यान-से उग्रता होती हो तो ध्यान करे। परन्तु वह ध्यान ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। बिना समझे ध्यान करे या विकल्प छोडे, कहाँ खडे रहना? अपना अस्तित्व ग्रहण किये बिना, समझ बिना ही ध्यान करे तो कोई लाभ नहीं है। समझकर ध्यान करे कि मैं यह चैतन्य हूँ और यह मैं नहीं हूँ। फिर उसमें एकाग्र होनेका तीखा पुरुषार्थ करे तो लाभ हो। लेकिन वह यथार्थ समझपूर्वक होना चाहिये।
एकाग्रताकी उग्रता करके विभाव-से भिन्न पडनेका प्रयत्न करे। परन्तु उसको यथार्थ ज्ञान करनेके लिये विचारके साथ वांचन, सत्संग, यथार्थ ज्ञान करनेके लिये वह होता है। फिर एकाग्रता करनेके लिये वह ध्यान करे, परन्तु समझपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये।
मुमुक्षुः- जो वांचन करने-से, जो विचार करने-से आत्मा विभावसे, विभावके