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है, कि एक आत्मा ही चाहिये, जहाँ आत्मार्थीता होती है, एक आत्माका ही प्रयोजन है, उसके कषाय मन्द होते हैं। उसे विषय कषायोंकी लालसा टूट जाती है। एक आत्मा चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। ऐसी उसकी अंतर-से परिणति हो जाती है। उसका नीति, न्यायके साथ सम्बन्ध होता है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन होनेके बाद नीति ज्यादा बढती है, ऐसा है?
समाधानः- नीतिका सम्यग्दर्शनके साथ जितना सम्बन्ध है उतनी होती है। व्यवहार- से अयोग्य हो ऐसी अनीति उसको नहीं होती। सम्यग्दर्शनके साथ भी नीतिका सम्बन्ध है। सम्यग्दर्शन होने पूर्व भी नीतिका सम्बन्ध होता है। सम्यग्दर्शन होनेका बाद कहीं अनीतिके कार्य करे ऐसा नहीं होता। सम्यग्दर्शन होनेके बाद चाहे जैसा आचरण करे तो कोई दोष नहीं है, ऐसा नहीं है। उसे चाहे जैसा आचरण होता ही नहीं।
जिसे स्वरूप मर्यादा हो गयी है, स्वरूप-से जो बाहर नहीं जाता है, स्वरूपको छोडकर विभावके साथ एकत्वबुद्धि नहीं करता है, जो स्वरूपकी मर्यादामें ही रहता है, अंतरमें उतनी मर्यादा आ गयी है, उसे स्वरूपाचरण चारित्र और भेदज्ञानकी धारा वर्तती है, ज्ञायककी धारा (वर्तती है), जो कर्ता नहीं होता, स्वरूपमें इतनी मर्यादा आ गयी, उसे बाहरकी मर्यादा, उसे विभावमें मर्यादा आ ही जाती है। जो स्वरूपमें- से बाहर नहीं जाता है, उसे अमुक मर्यादा होती है। तो उसे विभावकी, रागकी सबकी मर्यादा है। उसे नीतिके अमुक कार्य होते ही हैं। उसे सबमें मर्यादा आ जाती है।
जिसे अन्दरमें मर्यादा हो गयी, ज्ञायकको छोडकर कहीं जाता नहीं, ज्ञायककी धाराके अलावा उसकी परिणति कहीं एकत्व नहीं होती, तो उसके प्रत्येक कार्यमें मर्यादा होती है। मर्यादा रहित नहीं होता। उसकी भूमिकाके योग्य उसे सब होता ही है।
मुमुक्षुः- सिंहके भवमें महावीर भगवानको जो समकित प्राप्त हुआ, तो मुँहमें तो अभी मांस था।
समाधानः- वह छूट जाता है। फिर तो उसने छोड दिया। मुँहके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अंतर-से परिणति पलट गयी और छूट गया, आहार-पानीका त्याग कर दिया है। जहाँ सम्यग्दर्शन हुआ, वहाँ सिंहने आहारका त्याग कर दिया है। त्याग करके संथारा किया है और देवलोकमें गया है। उसने छोड दिया, आहार ही छोड दिया है। जहाँ सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति हुयी, परिणति पलट गयी वहाँ आहार छोड दिया।
मुमुक्षुः- मेरा कहना ऐसा है कि जो सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, उसके पहले हेय और उपादेयका विवेक करने जाय कि उसके पहले आत्माका स्वसंवेदन करनेका प्रयत्न करे?
समाधानः- जो स्वसंवेदन ओर मुडा उसमें हेय-उपादेय साथमें ही होता है। सब