२१२ नहीं है।
स्वयं आगे बढनेके लिये गुण ग्रहण करता है। अपने स्वभाव पर दृष्टि करके मैं स्वभाव-से पूर्ण हूँ। अपने गुणको ग्रहण करता है वह दूसरेके गुण (ग्रहण करता है)। परन्तु अपने गुण तो स्वभाव दृष्टि-से (देखता है)। बाकी अपनेमें कितनी अल्पता है, उस अल्पता पर दृष्टि करके पुरुषार्थ कैसे बढे, वीतराग कैसे होऊँ, मेरी साधक दशा कैसे आगे बढे, ऐसी भावना उसे होती है। इसलिये अपने गुणको गौण करके दोषको मुख्य करता है। दूसरेके गुणको मुख्य करता है। दूसरेके दोषके साथ कुछ प्रयोजन नहीं है। दूसरेके गुण-से अपनेको लाभ होता है। इसलिये उसे मुख्य करके स्वयंको आगे बढनेके लिये साधकदशामें साधकका वह प्रयोजन है।
आत्मार्थीओंको भी वही प्रयोजन है कि दूसरेके गुण ग्रहण करना, परन्तु दोषको ग्रहण नहीं करना। आत्मार्थीको भी होता है। दूसरेके दोषको गौण करके गुण मुख्य करना। और स्वयं कहाँ भूलता है और स्वयं कहाँ अटकता है, अपने दोष पर दृष्टि करके और पुरुषार्थको आगे बढाये। स्वभाव-से पूर्ण हूँ, उसका ख्याल रखे। परन्तु अभी बहुत पुरुषार्थ करना बाकी है। ऐसी खटक उसे अन्दर होनी चाहिये।
मुनिओं भी वीतरागदशा (की भावना भाते हैं कि) वीतराग कैसे होऊँ? पंच परमेष्ठी- अरिहंत, सिद्ध, आचार्य भगवंत आदि, उनके गुण पर दृष्टि करके स्वयं आगे बढता है। मुनिराज, साधक सब। पंच परमेष्ठी जिन्होंने साधना की, जो पूर्ण हो गये, उन पर भक्ति करके स्वयं अपना पुरुषार्थ, अपने पुरुषार्थकी डोर शुद्धात्मा तरफ जोडकर आगे बढता है। इसलिये करनेका वही है।
करना एक है-शुद्धात्माको (पहचानना)। आचार्यदेव कहते हैं, हम तुझे आगे बढनेको कहते हैं तीसरी भूमिकामें। उसका मतलब तुझे अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। परन्तु तीसरी भूमिका कहकर, तू तीसरी भूमिकामें जा। आगे बढनेको कहते हैं। उसमें-से अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। बीचमें शुभभाव तो आते ही हैं। इसलिये वहाँ भी नहीं अटकना है। तीसरी भूमिकामें जानेको आचार्यदेव कहते हैं। तीसरी भूमिकामें निर्विकल्प दशामें स्थिर होकर बाहर आये तो शुभभाव, पंच परमेष्ठी भगवंतोंकी भक्ति, गुणग्राहीपना वह सब आता है। और अपने दोष देखने तरफ दृष्टि और अपने पुरुषार्थकी डोर बढाकर आगे जाता है। मैं पूर्ण हूँ, फिर भी पर्यायमें न्यूनता है। ऐसी उसे भावना रहती है। पुरुषार्थ-से अपनी गति विशेष लीनता तरफ जोडता है और आनन्द एवं अनुभूतिकी दशा, चारित्र दशाको विशेष वृद्धिगत करता है।
मुमुक्षुः- परमागमसारमें निम्न रूपसे बात आती है। उसमें पहले जिज्ञासुका प्रश्न है कि ज्ञान विभावरूप परिणमता है? उसके उत्तरमें गुरुदेवश्रीने ऐसा कहा कि ज्ञानमें