Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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आचार्यदेव, गुरुदेव शुद्धात्मामें परिणति प्रगट करनेको कहते हैं। शुद्धात्माको तू ग्रहण कर। परन्तु बीचमें शुभभाव आये बिना नहीं रहते। शुभभाव तो जबतक पूर्णता नहीं होती तबतक आते हैैं। परन्तु उसकी परिणति शुद्धात्मा तरफकी ही होती है, साधक दशा।

मुमुक्षुः- उपदेशमें ऐसा आये कि अपने छोटे अवगुणको पर्वत जितना गिनना और दूसरेके छोटे गुणको बडा करके देखना। ऐसा भी आये कि पर्यायकी पामरताको गौण करके स्वयंको परमात्मस्वरूप देखना। ऐसे दोनों कथनका तात्पर्य क्या है?

समाधानः- चैतन्य अखण्ड द्रव्य पूर्ण-परिपूर्ण है, शाश्वत है। उस द्रव्यकी दृष्टि करनी और पर्यायमें न्यूनता है उसका ज्ञान करना। साधक दशामें दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें होते हैं। मैं द्रव्यदृष्टि-से पूर्ण हूँ। मेरा जो द्रव्य है उस द्रव्यका नाश नहीं हुआ है। अनादिअनन्त परिपूर्ण प्रभुतास्वरूप मैं हूँ। आत्माकी प्रभुताको लक्ष्यमें रखकर पर्यायमें मैं अधूरा हूँ, उस न्यूनताका उसे ज्ञान रहता है।

पुरुषार्थ कैसे हो? स्वरूपमें लीनता कैसे हो? स्वानुभूतिकी विशेष-विशेष दशा कैसे हो? अन्दरमें ज्ञायककी परिणति विशेष कैसे हो? पर्यायमें पुरुषार्थ पर उसका ध्यान होता है। इसलिये पर्यायमें मैं पामर हूँ और द्रव्य वस्तु स्वभाव-से मैं पूर्ण हूँ। दृष्टि और ज्ञान दोनों साधक दशामें साथ ही रहते हैैं। उसे कोई अपेक्षा-से मुख्य और कोई अपेक्षा-से (गौण कहनेमें आता है)। साधक दशामें दोनों जातकी परिणति साथमें ही होती है।

मैं दृष्टि-से पूर्ण हूँ और पर्यायमें अधूरा हूँ। दोनों उसकी साधक दशामें साथ ही होते हैं। इसलिये दूसरे पर दृष्टि (नहीं करनी है)। जो ज्ञाता हो वह ज्ञाता तो जानता रहता है। दूसरेका गुण देखने-से स्वयंको लाभका कारण होता है। दोष देखना तो नुकसानका कारण है। इसलिये वह गुणको मुख्य करके दोषको गौण करता है। स्वयंको पुरुषार्थ करना है, इसलिये स्वयं अपने अल्प दोषको (मुख्य करके समझता है कि) मुझे अभी बहुत पुरुषार्थ करना बाकी है। इसलिये अपने दोष पर दृष्टि करके गुणको गौण करता है। स्वयंको पुरुषार्थ करना है। दूसरेका दोष देखना, उसमें अटकना वह कोई साधकका कर्तव्य नहीं है।

प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र परिणमती है। वह तो ज्ञायकरूप रहना, ज्ञायकका ज्ञाता स्वभाव है, ज्ञातारूप-से जानते रहना। परन्तु साधक दशामें अपने गुणको गौण करके जो दोष है उसको मुख्य (करता है)। अपनी अल्पताको मुख्य करके, मुझे बहुत करना बाकी है, ऐसे स्वयं देखता है, उस जातका पुरुषार्थ करता है। दूसरेके गुणको देखे उसे मुख्य करता है और दूसरेको दोषको गौण करता है। दूसरेके दोषके साथ उसे कोई प्रयोजन