२१० उसमें पर्यायको नहीं देखना है, द्रव्यको देखना है।
वह पर्याय द्रव्यको ग्रहण करे ऐसी शक्ति है। ज्ञानकी ऐसी शक्ति है कि स्वयं द्रव्यको ग्रहण कर सके। लोकालोक प्रकाशक ज्ञान एक समयका ज्ञान हो, वह एक समयकी पर्याय जो ज्ञानकी है, वह एक समयमें लोकालोकको जाने। ऐसा उसका एक पर्यायका स्वभाव है। वह तो निर्मल ज्ञान हो गया है। इसका ज्ञान तो कम हो गया है। परन्तु पर्याय अपनेको ग्रहण कर सके ऐसी उसमें शक्ति है। परन्तु स्वयं अपनी तरफ देखता ही नहीं। अपनी क्षति है, स्वयं देखता नहीं है। स्वयं द्रव्यको पहचाननेका प्रयत्न नहीं करता है। मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा ज्ञायक हूँ। ज्ञानलक्षण द्वारा स्वयं अपनेको पीछान सकता है, प्रयत्न करे।
जितना ज्ञान लक्षण दिखता है, उस लक्षण द्वारा ज्ञायककी पहिचान होती है। गुण द्वारा गुणीकी पहिचान होती है। उसमें बीचमें पर्याय आती है, परन्तु पर्याय ग्रहण करती है द्रव्यको। विषय द्रव्यका करना है, ग्रहण द्रव्यको करना है। पर्याय पर-से दृष्टि छोडकर द्रव्य पर दृष्टि करनी है। भेदज्ञान करनेका है कि ये विभाव है वह मेरा स्वभाव नहीं है। ये सब विभाविक पर्यायें, उससे मैं अत्यंत भिन्न शाश्वत द्रव्य हूँ। गुणका भेद पडे या पर्यायका भेद पडे, वह भेद जितना मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो अखण्ड द्रव्य हूँ। उसमें अनन्त गुण है। उसकी पर्यायें हैैं। परन्तु उसके भेद पर दृष्टि नहीं देकरके एक अखण्ड द्रव्यको ग्रहण करना वही यथार्थ मार्ग है और वही सम्यग्दर्शन है। उसे यदि ग्रहण करे और विभाव-से भेदज्ञान करके ज्ञायककी परिणति प्रगट करे और ज्ञायकके भेदज्ञानकी धारा यदि प्रगट करे तो विकल्प छूटकर स्वानुभूति होती है और वही मुक्तिका मार्ग है और गुरुदेवने वही बताया है और वही करनेका है।
ग्रहण तो पर्याय द्वारा होता है, परन्तु वह स्वयं ग्रहण करे तो हो। पर्याय बीचमें आती है। पर्यायको ग्रहण नहीं करनी है। पर्याय पर दृष्टि नहीं करनी है, परन्तु दृष्टि द्रव्य पर करनी है। ग्रहण तो द्रव्यको ही करना है। अखण्ड द्रव्य ज्ञायक स्वभाव, उसको ग्रहण करना है।
उसे ग्रहण करे वही मुक्तिका मार्ग है। अनन्त कालमें जीवने सब किया लेकिन एक द्रव्यको ग्रहण नहीं किया। वह करना है। शुभाशुभ भाव भी चैतन्यका स्वभाव नहीं है। साधकदशामें वह शुभभाव बीचमें आते हैं। पंच परमेष्ठी भगवंतोंकी भक्ति, देव- गुरु-शास्त्रकी भक्ति, जिन्होंने उसे प्रगट किया उसकी भक्ति आती है। परन्तु वह शुभभाव है, उससे ज्ञायकका परिणमन भिन्न है। ऐसी श्रद्धा, प्रतीति और ऐसी ज्ञायककी परिणति प्रगट हो सकती है। वही मुक्तिका मार्ग है। फिर वीतराग दशा होती है तब वह सब छूट जाता है।