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करके कहते हैं कि) तू सिद्ध भगवान जैसा है, तू स्वीकार कर। जैसे सिद्ध भगवान है, वैसा ही तू है। ऐसे स्थापना (करते हैं)। आचार्यदेव और गुरुदेव कृपा करके शिष्यको सिद्ध भगवान जैसा कहते हैं कि तू सिद्ध है, तू भगवान है, ऐसा स्वीकार कर। अतः यदि पात्र श्रोता हो तो वह स्वीकार कर लेता है कि हाँ, मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ। उसे यथार्थ परिणमन भले बादमें हो, परन्तु पहले ऐसा नक्की करे कि हाँ, मझे गुरुदेवने कहा कि तू सिद्ध भगवान (जैसा है), तो मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ। ऐसा तू स्वीकार कर, ऐसा स्थापना करके कहते हैं। हम तुझे सिद्ध भगवान जैसा मानकर ही उपदेश देते हैं। तू नहीं समझेगा ऐसा मानकर नहीं कहते हैं। तू सिद्ध भगवान जैसा ही है, ऐसा तू नक्की कर। तो तेरा पुरुषार्थ प्रगट होगा।
मुमुक्षुः- अंतरमें मनोमंथन करके व्यवस्थित निर्णय करनेमें क्या-क्या आवश्यकता है?
समाधानः- वह तो अपनी पात्रता स्वयंको ही तैयार करनी है। स्वयं कहीं अटकता हो, स्वयंको कुछ बैठता न हो। मुख्य तो है, तत्त्वविचार करना। उपादान-निमित्त, स्वभाव- विभाव, क्या मेरा स्वभाव है, क्या विभाव है, मेरे चैतन्यके द्रव्य-गुण-पर्यायके क्या है, परद्रव्यके द्रव्य-गुण-पर्याय, अपने द्रव्य-गुण-पर्याय, मैं विभाव स्वभाव-से कैसे भिन्न पडूँ, सब स्वयंको अपने आप नक्की करना है। उसका मंथन करके एकत्वबुद्धि कैसे टूटे, आत्मा भिन्न कैसे हो, भेदज्ञान कैसे हो, उसका अंश कैसा होता है, उसकी पूर्णता कैसी होती है, उसकी साधक दशा कैसी होती है।
गुरुने जो अपूर्व रूप-से उपदेश दिया, गुरुको साथ रखकर स्वयं नक्की करे कि ये स्वभाव मेरा है, ये विभाव भिन्न है। ऐसा बराबर मंथन कर-करके अपने-से नक्की करे। ऐसा दृढ नक्की करे कि किसी-से बदले नहीं। ऐसा अपने-से नक्की करे। अपनी पात्रता ऐसी हो तो स्वयं नक्की कर सकता है।
मुमुक्षुः- ... स्वभावकी पहचान होती है या सीधी पहचान होती है? विस्तारपूर्वक समझानेकी कृपा कीजिये।
समाधानः- गुरुदेवने द्रव्य-पर्यायका ज्ञान बहुत दिया है, बहुत विस्तार किया है। सूक्ष्म रूप-से सर्व प्रकार-से कहीं भूल न रहे, इस तरह समझाया है। परन्तु स्वयंको पुरुषार्थ करनेका बाकी रह जाता है। बात तो यह है। पर्यायकी पहिचान, पर्यायको कहाँ पहचानता है?
जो द्रव्यको यथार्थ पहचानता है, वह द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचानता है, वह सबको पहचानता है। पर्यायको स्वयं पीछानता नहीं है। द्रव्यका ज्ञान करनेमें पर्याय बीचमें आती है। इसलिये पर्याय द्रव्यको ग्रहण करती है। पर्याय द्वारा द्रव्य ग्रहण होता है। परन्तु