Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1788 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-६)

२०८ ऐसा सुखमें ख्याल नहीं आता है।

समाधानः- ज्ञान है वह ऐसा असाधारण गुण है, वह चैतन्यका ऐसा विशेष गुण है कि उसे उस प्रकार-से नक्की किया जा सकता है। यह सुख है, वह ज्ञानकी भाँति, जैसे ज्ञेयोंको जानने-से (ज्ञान) नक्की होता है, वैसे वह सुखगुण ज्ञानकी भाँति वैसा असाधारण उस जातका गुण नहीं है। इसलिये उसे नक्की करना मुश्किल पडता है। तो भी उसका एक वेदन स्वभाव है। बाहर जहाँ-तहाँ सुखकी कल्पना कर रहा है, उस पर-से भी जिसे जानना हो, जिस मुमुक्षुको सुखका स्वभाव जानना हो, तो बाहर जो सुखकी कल्पना करनेवाला है वह स्वयं सुखस्वभावी है। इस प्रकार उसे नक्की किया जा सकता है, यदि वह करना चाहे तो।

उसका लक्षण उतना ही दिखता है कि सुखकी कल्पना बाहर कर रहा है। वह उसका लक्षण है। बाकी ज्ञानकी भाँति, जैसे ज्ञानगुण असाधारण है, वैसा वह नहीं है। तो भी जडमें कहीं सुखगुण नहीं है। सुखगुण एक चैतन्यमें ही है। जड जैसे जानता नहीं है, वैसे जडमें सुखका कोई स्वभाव भी नहीं है। सुखका स्वभाव आत्मामें ही है। इसलिये वह कल्पना कर रहा है, अतः वह सुख स्वभाव आत्माका है। ऐसे नक्की किया जा सकता है। परन्तु अंतर-से स्वयं बराबर बिठाये तो नक्की कर सकता है।

मुमुक्षुः- समयसारकी प्रथम गाथामें श्री गुरु अपने आत्मामें और श्रोताओंके आत्मामें अनन्त सिद्धोंकी स्थापना करते हैं। तो श्रोताको अनन्त सिद्धोंकी स्थापना करनी, उसमें क्या करनेको कहनेमें आता है?

समाधानः- जो गुरुदेव समझाये और आचार्य ऐसा कहते हैं कि मैं तेरे आत्मामें अनन्त सिद्धोंकी स्थापना करता हूँ अर्थात तू सिद्ध भगवान जैसा ही है। जैसे अनन्त सिद्ध है, वैसा ही तू है, ऐसा हम तुझे स्थापना करके कहते हैं, इसलिये तू स्वीकार कर कि तू सिद्ध भगवान जैसा ही है। और सिद्ध भगवानके स्वभाव जैसा तेरा स्वभाव है, अतः तू उस रूप परिणमन कर और पुरुषार्थ कर सके ऐसा है। ऐसा तू स्वीकार कर। ऐसा आचार्यदेव एवं गुरुदेव ऐसा कहते हैं कि हम तेरे आत्मामें सिद्ध भगवानकी स्थापना करते हैैं कि तू सिद्ध भगवान जैसा है। ऐसा तू स्वीकार कर।

ऐसा श्रोताओंको स्वयंको स्वीकार करना है। जो गुरु कहते हैं, सामने श्रोता ऐसे हैं कि स्वीकार करता है कि मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ। इसलिये जो गुरु कहते हैं, उसका मैं स्वीकार करके परिणमित हो जाऊँ। ऐसा स्थापना करनी है। जैसे अनन्त सिद्ध है, वैसा ही मैं सिद्ध भगवान जैसा ही हूँ। मेरा स्वभाव वैसा ही है, इसलिये मैं उस रूप हो सकू ऐसा हूँ। मेरेमें कुछ नहीं है और मैं कैसे करुँ, ऐसा नहीं है।

गुरुदेव और आचाया सिद्ध भगवानकी स्थापना करते हैं। श्रोताके आत्मामें (स्थापना