Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 272.

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1787 of 1906

 

२०७
ट्रेक-२७२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- आत्माका ज्ञानस्वभाव अनन्त है, वह तो अनन्त ज्ञेय पर-से ख्याल आता है कि एक समयमें तीन काल तीन लोकको जाने उतना परिपूर्ण सामर्थ्य भरा है। अनन्त सुख हम कहते हैं, परन्तु अनन्त यानी उसका कोई ख्याल नहीं आता है। अनन्त यानी कितना और किस प्रकार-से? जैसे ज्ञानका थोडा विचार करते हैं तो ज्ञानमें थोडा विचार लंबाता है। परन्तु सुखमें उतना लंबाता नहीं है।

मुमुक्षुः- ज्ञानकी बाहर-से कल्पना करी कि चाहे जितने ज्ञेयोंको जाने, एक समयमें जाने, वह बाहर-से निर्णय हुआ है। परन्तु वह ज्ञेय-से ज्ञान है, ऐसा नहीं है, ज्ञान तो स्वतः है। ज्ञान अनन्त-अनन्त भण्डार है। चाहे जितना तो भी खत्म नहीं होता। ज्ञेयों-से ज्ञान है, ऐसा नहीं। अनन्त काल पर्यंत परिणमे तो भी ज्ञान खत्म नहीं होता और अनन्त जाने तो भी ज्ञान खत्म नहीं होता, ऐसा अनन्त ज्ञान है।

वैसे सुख भी स्वतःसिद्ध है। अनन्त काल पर्यंत सुखरूप परिणमे तो भी सुख खत्म नहीं होता है। और वह सुख जो प्रगट होता है वह स्वयं अनन्त (है)। इतना सुख और उतना सुख, ऐसे नहीं, परन्तु सर्व प्रकार-से सर्व अंश-से पूरे असंख्य प्रदेशमें अनन्त-अनन्त, जिसकी कोई सीमा नहीं है ऐसा सुखका स्वभाव स्वयं ही है। उसे बाहर-से नक्की करना वह स्वतःसिद्ध वस्तु नहीं है।

जैसे ज्ञानको बाह्य ज्ञेयों-से नक्की करनेमें आये, वह तो स्वतःसिद्ध है, वह तो ज्ञेयों-से जाननेमात्र नक्की करनेके लिये है। जैसे ज्ञान स्वतःसिद्ध है, वैसे सुख भी स्वतःसिद्ध अनन्त ही है। उसके अनन्त गुण, अनन्त सामर्थ्य-से भरा हुआ, ऐसा सुख भी अनन्त काल पर्यंत खत्म नहीं होता और जो प्रगट होता है वह भी अनन्त है। उसके अनन्त- अनन्त अंशों-से भरा है। उसके अविभाग प्रतिच्छेद आदि सब अनन्त ही है। जो प्रगट हो उसके अंशमें अनन्त है और उसके अविभाग प्रतिच्छेद सब अनन्त ही हैं।

मुमुक्षुः- वर्तमानमें आकुलताका स्वाद आता है। इसलिये सुखकी एक कल्पना (करनी पडती है कि) अनाकुलता लक्षण सुख। परन्तु वास्तविक स्वाद नहीं आया है, इसलिये उसकी मात्र कल्पना होती है। ज्ञानमें तो अंश प्रगट है, इसलिये उसे तो अनुमान- से स्पष्ट (ज्ञानमें) लिया जाता है कि यह ज्ञान और ऐसा परिपूर्ण ज्ञायक वह आत्मा।