આત્મામાં જ્ઞાન સ્વભાવ અનંતો છે તે તો અનંતા જ્ઞેયોને એકસાથે જાણે છે તેથી અનંતજ્ઞાનનો ખ્યાલ આવે છે તેમ આત્મામાં અનંત સુખ કેવી રીતે છે? તેનો વિચાર લંબાતો નથી. (પ્રશ્નનો સારાંશ) 0 Play आत्मामां ज्ञान स्वभाव अनंतो छे ते तो अनंता ज्ञेयोने एकसाथे जाणे छे तेथी अनंतज्ञाननो ख्याल आवे छे तेम आत्मामां अनंत सुख केवी रीते छे? तेनो विचार लंबातो नथी. (प्रश्ननो सारांश) 0 Play
સમયસારની પહેલી ગાથામાં શ્રીગુરુએ પોતાના આત્મામાં અને શ્રોતાના આત્મામાં અનંતા સિદ્ધોની સ્થાપના કરી છે તેમાં શ્રોતાઓએ પોતામાં અનંતા સિદ્ધોની સ્થાપના કરવા શું કરવાનું? તેમાં શું કહેવા માંગે છે 4:00 Play समयसारनी पहेली गाथामां श्रीगुरुए पोताना आत्मामां अने श्रोताना आत्मामां अनंता सिद्धोनी स्थापना करी छे तेमां श्रोताओए पोतामां अनंता सिद्धोनी स्थापना करवा शुं करवानुं? तेमां शुं कहेवा मांगे छे 4:00 Play
અંતરમાં મનોમંથન કરી વ્યવસ્થિત નિર્ણય કરવામાં શી શી આવશ્યકતા હોય છે? 6:25 Play अंतरमां मनोमंथन करी व्यवस्थित निर्णय करवामां शी शी आवश्यकता होय छे? 6:25 Play
‘દ્રવ્ય’ પર્યાય દ્વારા ગ્રહણ થાય છે કે સીધું ઓળખાય ? 7:50 Play ‘द्रव्य’ पर्याय द्वारा ग्रहण थाय छे के सीधुं ओळखाय ? 7:50 Play
ઉપદેશમાં આવે છે કે પોતાના નાના અવગુણને પર્વત જેવો માનવો અને બીજાના નાના ગુણને મોટો કરીને જોવો. વળી એમ પણ આવે છે કે પર્યાયની પામરતાને ગૌણ કરી પોતાને પરમાત્મા સ્વરૂપ જોવો આવા બંને કથનોનું તાત્પર્ય શું છે? 12:20 Play उपदेशमां आवे छे के पोताना नाना अवगुणने पर्वत जेवो मानवो अने बीजाना नाना गुणने मोटो करीने जोवो. वळी एम पण आवे छे के पर्यायनी पामरताने गौण करी पोताने परमात्मा स्वरूप जोवो आवा बंने कथनोनुं तात्पर्य शुं छे? 12:20 Play
પરમાગમસારમાં આવે છે કે શ્રોતાનો પ્રશ્ન–જ્ઞાન વિભાવ રૂપે પરિણમે છે? પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રી ઉત્તર–જ્ઞાનમાં વિભાવરૂપ પરિણમન નથી. જ્ઞાન સ્વ-પરપ્રકાશક સ્વભાવી છે પણ જે જ્ઞાન સ્વને પ્રકાશે નહીં અને એકલા પરને જ પ્રકાશે તે જ્ઞાનનો દોષ છે. વિભાવ અને દોષમાં શું તફાવત છે તે સમજાવશો. 18:10 Play परमागमसारमां आवे छे के श्रोतानो प्रश्न–ज्ञान विभाव रूपे परिणमे छे? पूज्य गुरुदेवश्री उत्तर–ज्ञानमां विभावरूप परिणमन नथी. ज्ञान स्व-परप्रकाशक स्वभावी छे पण जे ज्ञान स्वने प्रकाशे नहीं अने एकला परने ज प्रकाशे ते ज्ञाननो दोष छे. विभाव अने दोषमां शुं तफावत छे ते समजावशो. 18:10 Play
પૂજ્ય ગુુરુદેવશ્રી ફરમાવતા ‘જેનાથી લાભ માને તેને પોતાનું માન્યા વિના રહે નહીં’ પરપદાર્થમાં ઇષ્ટ- અનિષ્ટબુદ્ધિ જીવને છે તો શું અનિષ્ટ પદાર્થમાં પોતાપણું માને છે? આમાં પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રીનો આશય સ્પષ્ટ કરશો. 20:35 Play पूज्य गुुरुदेवश्री फरमावता ‘जेनाथी लाभ माने तेने पोतानुं मान्या विना रहे नहीं’ परपदार्थमां इष्ट- अनिष्टबुद्धि जीवने छे तो शुं अनिष्ट पदार्थमां पोतापणुं माने छे? आमां पूज्य गुरुदेवश्रीनो आशय स्पष्ट करशो. 20:35 Play
मुमुक्षुः- आत्माका ज्ञानस्वभाव अनन्त है, वह तो अनन्त ज्ञेय पर-से ख्यालआता है कि एक समयमें तीन काल तीन लोकको जाने उतना परिपूर्ण सामर्थ्य भरा है। अनन्त सुख हम कहते हैं, परन्तु अनन्त यानी उसका कोई ख्याल नहीं आता है। अनन्त यानी कितना और किस प्रकार-से? जैसे ज्ञानका थोडा विचार करते हैं तो ज्ञानमें थोडा विचार लंबाता है। परन्तु सुखमें उतना लंबाता नहीं है।
मुमुक्षुः- ज्ञानकी बाहर-से कल्पना करी कि चाहे जितने ज्ञेयोंको जाने, एक समयमेंजाने, वह बाहर-से निर्णय हुआ है। परन्तु वह ज्ञेय-से ज्ञान है, ऐसा नहीं है, ज्ञान तो स्वतः है। ज्ञान अनन्त-अनन्त भण्डार है। चाहे जितना तो भी खत्म नहीं होता। ज्ञेयों-से ज्ञान है, ऐसा नहीं। अनन्त काल पर्यंत परिणमे तो भी ज्ञान खत्म नहीं होता और अनन्त जाने तो भी ज्ञान खत्म नहीं होता, ऐसा अनन्त ज्ञान है।
वैसे सुख भी स्वतःसिद्ध है। अनन्त काल पर्यंत सुखरूप परिणमे तो भी सुख खत्मनहीं होता है। और वह सुख जो प्रगट होता है वह स्वयं अनन्त (है)। इतना सुख और उतना सुख, ऐसे नहीं, परन्तु सर्व प्रकार-से सर्व अंश-से पूरे असंख्य प्रदेशमें अनन्त-अनन्त, जिसकी कोई सीमा नहीं है ऐसा सुखका स्वभाव स्वयं ही है। उसे बाहर-से नक्की करना वह स्वतःसिद्ध वस्तु नहीं है।
जैसे ज्ञानको बाह्य ज्ञेयों-से नक्की करनेमें आये, वह तो स्वतःसिद्ध है, वह तोज्ञेयों-से जाननेमात्र नक्की करनेके लिये है। जैसे ज्ञान स्वतःसिद्ध है, वैसे सुख भी स्वतःसिद्ध अनन्त ही है। उसके अनन्त गुण, अनन्त सामर्थ्य-से भरा हुआ, ऐसा सुख भी अनन्त काल पर्यंत खत्म नहीं होता और जो प्रगट होता है वह भी अनन्त है। उसके अनन्त- अनन्त अंशों-से भरा है। उसके अविभाग प्रतिच्छेद आदि सब अनन्त ही है। जो प्रगट हो उसके अंशमें अनन्त है और उसके अविभाग प्रतिच्छेद सब अनन्त ही हैं।
मुमुक्षुः- वर्तमानमें आकुलताका स्वाद आता है। इसलिये सुखकी एक कल्पना(करनी पडती है कि) अनाकुलता लक्षण सुख। परन्तु वास्तविक स्वाद नहीं आया है, इसलिये उसकी मात्र कल्पना होती है। ज्ञानमें तो अंश प्रगट है, इसलिये उसे तो अनुमान- से स्पष्ट (ज्ञानमें) लिया जाता है कि यह ज्ञान और ऐसा परिपूर्ण ज्ञायक वह आत्मा।