२०६ है, वह स्वयं सुखस्वभावी है। इसीलिये सुख मान रहा है।
वह जड नहीं मानता है। सुख स्वभाव अपना है, इसलिये जहाँ-तहाँ आरोप करके सुखकी कल्पना करता रहता है। वह स्वयं सुखका भण्डार है, इसलिये परमें सुखकी कल्पना करता है। परन्तु परमें सुख नहीं है। दृष्टि विपरीत है, बाहर सुख माना है। अन्दर अपना स्वतःसिद्ध, अनादिअनन्त सहज सिद्ध स्वभाव सुख अपना है। जैसे ज्ञान अपना है, जो जानन स्वभाव हर जगह जाननेवाला ही है, वैसे सुखस्वभाव भी सहज स्वरूप-से अपना ही है। इसलिये जहाँ-तहाँ कल्पना करके शान्ति मानता है, सुख मानता है। वह स्वयं ही मान रहा है।
जैसे जाननेवाला हर जगह जाननरूप ही रहता है, वैसे सुखकी कल्पना स्वयं ही कर रहा है। वह स्वयं सुखका भण्डार है, वही सुखकी कल्पना करनेवाला है। इसलिये सुख अपनेमें रहा है। इसलिये जहाँ-तहाँ (सुखकी कल्पना करता है)। आचार्यदेव अनेक बार कहते हैं, गुरुदेव कहते हैं, सुख अपनेमें है। मृगकी नाभिमें कस्तूरी (है)। (कस्तूरीकी) सुगन्ध हर जगह आ रही है, उसे चारों ओर ढूँढता है।
वैसे स्वयं सुखस्वभावी सुखकी कल्पना जहाँ-तहाँ बाहरमें कर रहा है। वह स्वयं ही सुखका भण्डार स्वतःसिद्ध आनन्द वस्तु वह स्वयं ही है। वह स्वतःसिद्ध है, परन्तु वह जहाँ-तहाँ मान रहा है। गुरुदेवने बताया है, आचार्यदेवने बताया है।
मुमुक्षुः- कल्पनाके पीछे सुख पडा है।
समाधानः- कल्पनाके पीछे सुखस्वभाव अपना है। वह स्वयं कल्पना कर रहा है। जहाँ-तहाँ खाकर, पी कर, घूमकर, जहाँ-तहाँ मानमें, इसमें-उसमें यहाँ-वहाँ सुख माननेवाला वह सुखस्वभावी स्वयं है।
मुमुक्षुः- सुख कहीं दूर नहीं है। समाधानः- सुख दूर नहीं है। स्वयं, अपनेमें सहज स्वभावमें सुख है। विकल्पकी जाल और विभावको छोडे, विकल्प ओरकी दृष्टि, आकुलता-से वापस मुडे, भेदज्ञान करे और स्वयं निर्विकल्प स्वरूपमें जाय तो सुख जो सहज स्वभाव है, वह सुखका सागर अपनेमें-से प्रगट हो ऐसा है। वह बाहर कल्पना करता है।