Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1785 of 1906

 

ट्रेक-

२७१

२०५

आता है।

मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि रागका रस फिका पड जाता है। राग तो रहता है, लेकिन सम्यग्दृष्टिको रस फिका पड जाता है।

समाधानः- उसे, रागका स्वामीत्व (नहीं है)। राग मेरा स्वरूप नहीं है, अस्थिरताका राग खडा रहता है, परन्तु राग पर प्रीति नहीं है। ये राग आदरणीय नहीं है, यह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं तो वीतरागस्वरूप हूँ। इसलिये रागका रस फिका पड जाता है। उसकी एकत्वबुद्धि टूट जाती है।

ये राग मेरा स्वरूप ही नहीं है। उससे अत्यंत भिन्न परिणति रहती है। उसमें अनन्त रस निकल जाता है। उसकी स्वामित्व बुद्धि, उसका रस (टूट गया है)। राग खडा रहे तो भी रागका राग नहीं है। राग रखने योग्य नहीं है और राग मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसी ज्ञायक दशा उसे प्रतिक्षण वर्तती ही है।

जब वैसी परिणति अन्दर हो तो विकल्प टूटकर स्वानुभूतिकी दशा परिणमित हो जाती है। रागका रस तो ऊतर गया है, परन्तु अस्थिरताके कारण वह रागमें रुखे भाव- से जुडता है। उसे भेदज्ञानकी परिणति (चलती होने-से) भिन्न भाव-से जुडता है। न्यारी परिणति है।

मुमुक्षुः- आत्मामें सुख भरा पडा है, तो उसका निर्णय करनेकी रीत क्या है?

समाधानः- आत्मामें सुख है। आचार्यदेवने, गुरुदेवने अनेक प्रकार-से उसका स्वभाव बताकर अनेक युक्ति-से, दलील-से आचार्यदेव कहते हैं, गुरुदेव कहते हैं कि हम स्वानुभूति करके कहते हैं कि आत्मामें सुख है। फिर उसका निर्णय करना वह तो अपने हाथकी बात है, निर्णय कैसे करना वह।

उसकी अनेक युक्तियोँ-से, दलीलों-से सर्व प्रकार-से। आगम, युक्ति और स्वानुभूति, सर्व प्रकार-से गुरुदेव और आचार्य कहते हैं। गुरुदेवने तो उपदेश देकर बहुत स्पष्ट (किया है), सब सूक्ष्म प्रकार-से अपूर्व रीतसे समझाया है। निर्णय तो स्वयंको ही करना है।

मार्ग बताये, कोई मार्ग पर जा रहा हो उसे मार्ग बताये, चलना तो स्वयंको है। निर्णय तो स्वयंको ही करना है। जो सुखकी इच्छा करता है, जहाँ-तहाँ सुखकी कल्पना करनेवाला है। किसी भी भावोंमें, किसी भी रागमें, किसी भी कार्यमें जो सुखकी कल्पना करनेवाला, सुखकी कल्पना करके जो सुख मानता है, वह सुखकी कल्पना करनेवाला स्वयं सुखस्वभावी है। इसलिये कल्पना करता है। जो सहज सुखस्वभावी, जो सहज आनन्द स्वभावी है। अपनी ओर दृष्टि नहीं है, सहजरूप परिणमता नहीं है। जो अन्यमें सुखकी कल्पना करनेवाला है, जो चैतन्य है, जहाँ-तहाँ सुखकी कल्पना (करनेवाला है), जहाँ सुख नहीं है, वहाँ कल्पना करके सुखको स्वयं वेदता है, सुख मान रहा