२०४ सब मेरा स्वरूप नहीं है। तो भी उस भूमिकामें श्रुतका अभ्यास, गुरु-वाणीका श्रवण, गुरु-सेवा, गुरु-भक्ति, जिनेन्द्र भक्ति इत्यादि (सब होता है)। जिन्होंने वह स्वरूप प्रगट किया, ऐसे पंच परमेष्ठी भगवंतोंकी भक्ति उसे आये बिना नहीं रहती। उसकी श्रद्धामें ऐसा होना चाहिये कि ये राग मेरा स्वरूप नहीं है, मैं राग-से अत्यंत भिन्न हूँ।
परन्तु जिस स्वरूपकी स्वयंको प्रीति हो, वह जिसने प्रगट किया, उस पर उसे भक्ति आये बिना नहीं रहती। और प्रथम भूमिकामें उसका अभ्यास, चिंतवन, मनन करे, आत्माका स्वरूप प्रगट करनेके लिये। मेरी आनन्द दशा कैसे प्रगट हो, इसलिये वह बीचमें आये बिना नहीं रहता। श्रद्धामें ऐसा होना चाहिये कि मैं इससे अत्यंत भिन्न हूँ। मेरे स्वभावकी पहिचान कैसे हो, ऐसे श्रद्धामें होना चाहिये। परन्तु वह आचरणमें आये बिना नहीं रहता। रागदशा है तबतक।
इस क्षण वीतराग हुआ जाता हो, ये छूट जाता हो, तो वीतराग दशा ही आदरणीय है। विकल्पकी जाल छूट जाती हो तो निर्विकल्प दशा-आनन्द और स्वानुभूतिकी दशा ही आदरणीय है।
मुमुक्षुः- आचरणमें आवे, परन्तु उसका निषेध करनेकी... जो श्रद्धामें पडा है, इसलिये उसका निषेध होता रहता है। तो जैसा उसे बाहरका निषेध श्रद्धामें है, वैसा उसे विकल्पमें भी निषेध आता है?
समाधानः- श्रद्धामें उसे क्षण-क्षणमें (ऐसा होता है कि) मैं इससे भिन्न हूँ। ऐसा विकल्पमें निषेध नहीं, श्रद्धामें निषेध हुआ इसलिये सब निषेध आ गया। उसे श्रद्धामें अत्यंत निषेध है। कोई अपेक्षा-से आदरणीय नहीं है। उसकी श्रद्धामें सर्व प्रकार-से वह निषिध्य ही है।
विकल्पमें तो ऐसा होता है कि मैं वीतराग हो जाऊँ तो मुझे ये कुछ नहीं चाहिये। ऐसा भावनामें है। ये विकल्प जाल मुझे चाहिये ही नहीं, ऐसा उसकी भावनामें रहता है। बाकी श्रद्धामें (ऐसा होता है कि) ये मेरा स्वरूप ही नहीं है। विकल्पमें अर्थात उसे बुद्धिमें तो ऐसा रहता है कि ये कुछ आचरने योग्य नहीं है, परन्तु श्रद्धामें तो परिणतिरूप रहता है। वह तो एक ज्ञानमें रहता है। परिणतिरूप ऐसा ही रहता है कि मैं इससे अत्यंत भिन्न हूँ, ऐसी भेदज्ञानकी परिणति क्षण-क्षण निरंतर वर्तती है कि चाहे सो राग आये, मैं उससे अत्यंत भिन्न हूँ। उसकी परिणति उसे क्षण-क्षणमें सहज रहती है। परन्तु अशुभ परिणाम-से बचनेको शुभभाव (बीचमें आते हैं)।
जो स्वभाव स्वयंने प्रगट किया, वह जिसने प्रगट किया ऐसे देव-गुरु-शास्त्र पर उसे भक्ति आये बिना नहीं रहती। ज्ञानमें भी उसे ख्याल है कि ये कुछ आदरने योग्य नहीं है। विकल्पमें और ज्ञानमें ऐसा है कि दोनों आदरने योग्य नहीं है। मात्र आचरणमें