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उसकी ही करनी है, ध्येय तो उसीका रखना है कि मैं सर्व प्रकारके राग-से भिन्न ही हूँ। मेरा चैतन्य स्वभाव भिन्न और ये भिन्न हैं। परन्तु बीचमें श्रुतका अभ्यास, सत्संग, वैराग्य आदि मुमुक्षुकी भूमिकामें उसे आये बिना नहीं रहता। इसलिये वह बीचमें होता है। जबतक वह समझता नहीं है, सम्यग्दर्शन नहीं हुआ है और सम्यग्दर्शन हुआ हो तो भी बीचमें वह शुभभाव तो आते हैं। सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें उसे श्रद्धामें-से छूट गया है। मैं तो वीतराग स्वरूप हूँ, ज्ञायक हूँ, राग स्वभाव कहीं आत्माका नहीं है। राग-से आत्मा अत्यंत भिन्न है। सम्यग्दर्शनमें तो उसे वह प्रतीति हो गयी है। स्वानुभूति हो गयी है। राग वह कहीं आत्माका स्वरूप नहीं है, वह तो विभाव है। इसलिये उसे बाधक कहनेमें आता है।
विभाव है इसलिये बाधक है, परन्तु बीचमें आये बिना नहीं रहता। इसलिये अशुभ परिणाम-से बचनेको शुभभाव आते हैं। स्वभावकी जिससे पहिचान हो ऐसा श्रुतका अभ्यास, गुरुकी वाणीका श्रवण, जिनेन्द्र देवकी भक्ति आदि सब बीचमें आये बिना नहीं रहता। बीचमें आता है तो भी जब निर्विकल्प दशा होती है, वह सब विकल्पकी जाल है, इसलिये उसमें अटकना नहीं है कि इतना श्रुतका अभ्यास कर लूँ कि यह कर लूँ, उसमें यदि रुके तो वह राग आत्माका स्वरूप नहीं है। यदि निर्विकल्प दशा होती हो तो वह सब छूट जाता है। उसमें वह नहीं रहता। वीतराग दशा होती है। उसमें राग-शुभभाव रखने जैसा नहीं है। वीतराग होना वही आत्माका स्वरूप है। ध्येय तो वही रखनेका है।
मुनिओंको कहनेमें आता है न कि शुभ आचरण या अशुभ आचरणरूप कर्म, वह तो विभाव अवस्था है। तो निष्कर्म अवस्थामें मुनि कुछ न करे, आचरण न हो तो वे कहीं अशरण नहीं हो जाते, वे तो स्वरूपमें अमृत पीते हैं। जो स्वरूपकी साधना और निर्विकल्प दशा होती हो और चारित्रकी लीनता, निर्विकल्प दशा होती हो, चारित्रकी लीनता होती हो और वह छूट जाय तो वह तो आत्माका स्वरूप ही है, वीतराग दशा है। उन्हें वह होता हो और उसमें रुके तो वह तो बाधक है। परन्तु अशुभ- से बचनेके लिये वह शुभभाव बीचमें आये बिना नहीं रहते। प्रारंभमें भी आते हैं। सम्यग्दर्शन हुआ, अभी वीतराग दशा नहीं हुयी है तो आता है। मुनिओंको भी बीचमें होता है। परन्तु छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते मुनि जब बाहर आते हैं तब शुभभाव होते हैं। अंतरमें स्थिर होते हैं तो निर्विकल्प दशामें तो छूट जाता है। इसलिये कोई अपेक्षा-से उसे बीचमें आता है और वह अपना स्वरूप नहीं है, विभावभाव है, इसलिये वह बाधक है।
मुमुक्षुको तो ध्येय वह रखनेका है कि मैं वीतराग स्वभाव हूँ, मैं चैतन्य हूँ। ये